बामसेफ BAMCEF क्या है ?
BAMCEF क्या है ? इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी ?
यह अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़े एवं धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के सरकारी और
गैर सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों का संगठन है. बामसेफ अंग्रेजी के छ: अक्षरों BAMCEF से मिलकर बना है जो वस्तुतः "The ALL India Backward (SC,ST,OBC) And Minorities Communities Employees Federation का संक्षिप्त रूप है. इसका मकसद शोषित और पीड़ित समाज
के बुद्धिजीवी लोगों को संगठित करके समाज की गैर राजनितिक जड़ों को मजबूत करना है. मान्यवर कांशीराम साहब कहते थे कि जिस समाज की गैर राजनीतिक जड़ें मजबूत नहीं होती उस समाज की राजनीति कभी सफल नहीं
हो सकती.
अगर हम बामसेफ की
पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो यह साफ दिखायी देता है कि बाबा साहब डा. अम्बेडकर के
परिनिर्वाण के बाद जिन लोगों के ऊपर मिशन को चलाने की जिम्मेदारी थी उन लोगों ने
मिशन को बेचा. वे बाबा साहब के सपनों को पूरा करने की बजाय गाँधी के सपनों को पूरा
करने में लग गये. जिस वर्ष बाबा साहब का देहान्त हुआ उसी वर्ष मान्यवर कांशीराम
साहब महाराष्ट्र में पुणे पहुँचते हैं और अम्बेडकरवादी गतिविधियों से उनका परिचय
हुआ. बाबा साहब के मिशन से प्रभावित होकर कांशीराम साहब ने ....
बामसेफ के माध्यम से
उन्होंने Pay Back to Society की अवधारणा के तहत समाज के बुद्धिजीवी लोगों को अपने
समाज के हित में Money, Mind and Time देने के लिए तैयार किया. बामसेफ के रूप में एक सफल संघटन का
निर्माण करके समाज की गैर राजनीतिक जड़ों को मजबूती प्रदान करने के बाद मान्यवर
कांशीराम साहब ने बहुजन समाज के अधिकारों की प्राप्ति हेतु दलित-शोषित समाज संघर्ष
समिति जिसे संक्षेप में डी.एस.-४ कहा गया, का निर्माण किया . अंत में राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के
लिए उन्होंने बहुजन समाज पार्टी का निर्माण किया. उनका मानना था कि उत्तर
प्रदेश को हमें मजबूती से पकड़ना है. यह ब्राह्मणवाद का गढ़ है. देश का सबसे बड़ा
सूबा है और लोकसभा की सर्वाधिक ८० सीटों की वजह से दिल्ली की सत्ता का रास्ता भी
यहीं से होकर गुजरता है.
आज हम बेचारे नहीं हैं. जिन्हें सबसे ज्यादा गया गुजरा और नालायक समझा जाता था वही लोग आज सबसे ज्यादा पावरफुल हैं. पहले की तुलना में हम
ज्यादा ताकतवर और हैं. हमारे लोग ज्यादा-पढ़े लिखे हैं, सबसे ज्यादा आई.ए.एस.,
आई.पी.एस. हैं, हमारी संख्या देश में दूसरे नम्बर पर है. आज का दलित जागरूक है और
अपने अधिकारों के प्रति सचेत भी है. वह अपनी शक्ति को पहचानने लगे हैं इसीलिए आज
हमको नजरंदाज करने की स्थिति में कोई भी नहीं है और न ही उनका नाम लिये कोई आगे बढ़
पा रहा है. देश की दो बड़ी राजनितिक पार्टियों में दलित को राष्ट्रपति बनाने की
होड़, बाबा साहब की पूजा का पाखण्ड, दलितों के घर भोजन करने का ड्रामा इसके ज्वलंत
उदाहरण हैं.
निचली कही जाने वाली जातियों ने राजनीति करना सीख लिया है. आज वे भारतीय राजनीति के केन्द्र बिन्दु बन गये हैं.
जो लोग कभी अछूतों की छाया से परहेज करते थे आज वे उनका नेतृत्व स्वीकार करने लगे
हैं. भारत की सामाजिक संरचना में ऐसा उदाहरण बुद्ध के बाद पहली बार दिखायी दे रहा
है.
मिशन के अच्छे लक्षण- समाज में चेतना और जागृति
आयी है. लोगों में आन्दोलन के प्रति चारों तरफ जोश और हलचल दिखायी दे रही है.
लोगों में आन्दोलन के प्रति गजब का उत्साह और जोश दिखायी दे रहा है. उन्हें शक्ति
का आभास और अहसास होने लगा है. वे अपनी शक्ति को पहचानने लगे हैं. लेकिन जोश में
होश नहीं खोना है. अगर नेता जोश के कारण होश खो बैठते हैं तो फिर जनता को कुछ
हासिल नहीं होता है. जब जनता को कुछ हासिल नहीं होता तो जनता टूट जाती है, उनका
विश्वास टूट जाता है और एक-दो बार के बाद जनता ढीली पड़ जाती है और तब फिर नेता रुक
जाता है, संघर्ष रुक जाता है और समाज का विकास रुक जाता है. यही हाल बाबा साहब डा.
अम्बेडकर के देहान्त के बाद हुआ. महाराष्ट्र में १९६४-१९६५ में ‘रिपब्लिकन
पार्टी आफ इण्डिया’ द्वारा बहुत बड़ा संघर्ष हुआ. चार लाख लोग जेल गये. परिणाम
कुछ नहीं हुआ. वहीं जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर संघर्ष में ८० हजार लोग जेल गये
और ३० साल के कांग्रेस शासन को पलट कर रख दिया. अभी हाल के वर्षों में २०११-२०१२
से पदोन्नति में आरक्षण के लिए संघर्ष, २०१६ में रोहित वेमुला की हत्या, उसके बाद
ऊना में दलित उत्पीड़न की घटना और २०१७ में सहारनपुर के सब्बीरपुर में दलितों के
ऊपर किये गये निर्मम अत्याचार, आगजनी तथा हत्याओं के बाद उपजे आन्दोलन का हस्र भी
हम देख चुके हैं. इसलिए जो काम बैलेट से हो सकता है वह बुलेट से नहीं हो सकता है.
वोट का अधिकार कारगर हथियार है. इसका इस्तेमाल करके हम सत्ता हासिल कर लेंगे और
सत्ता के माध्यम से हम सामाजिक-आर्थिक विषमता को ख़त्म कर लेंगे. शोर-शराबा करने से
कोई फायदा नहीं होने वाला बल्कि मिशन तभी आगे बढ़ेगा जब हम कुछ त्याग और बलिदान
करने के लिए लोगों को तैयार करें और अपनी पार्टी (बहुजन समाज पार्टी) और अपनी नेता बहन सुश्री मायावती के नेतृत्व पर विश्वास करना सीखें.
दलित-शोषित समाज की कुछ खूबियाँ हैं और कुछ कमजोरियाँ भी हैं यथा- विखंडित समाज है बिखरे
हुए मोतियों जैसा, मांगकर खानेवाला नहीं, मेहनत करके खानेवाला. साधनों का उचित और
सही उपयोग करना नहीं जानता. बिकाऊ और बहानेबाज. दिल दिमाग से बीमार, गुलामी और
ताकत का अहसास नहीं. दूसरों को भला-बुरा कहने की आदत. दूसरों से अपेक्षा, स्वयं कुछ
करना नहीं चाहते, मांगने की आदत. चमचागिरी की आदत जैसे खून में समा गयी है इसलिए
चन्द टुकड़ों में पलने की आदत है.
समाधान- बिखरे समाज को संघठित करना,
मांगनेवाला नहीं देनेवाला बनना है, साधनों का उचित और सही इस्तेमाल, गुलामी का
अहसास, अपनी ताकत का अहसास, दिल और दिमाग की बीमारी तथा मन की दुर्बलता को दूर
करना होगा. समस्या हमारी तो समाधान हमको ही निकालना है. दूसरों को भला-बुरा कहने
और बिकाऊ तथा बहानेबाजी को छोडकर काम करने की आदत डालनी है.
आज युवाओं की उपयोगिता बढ़ी है. वे बुजुर्गों को राह दिखा रहे हैं. जाति विशेष का संगठन बनानेवाले मंदबुद्धि हैं और खुद के दुश्मन हैं अत: इनसे सावधान रहने की जरूरत है. हम बिना बहुजन समाज बनाकर ही इस देश में सामाजिक परिवर्तन आन्दोलन को सफल बनाकर समतामूलक समाज की स्थापना कर सकते हैं.
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें