मरा चूहा बेचकर लखपति बननेवाले एक दरिद्र व्यक्ति की कथा

मरा चूहा बेचकर लखपति बननेवाले एक दरिद्र व्यक्ति की कथा

 पूर्व काल में काशी राष्ट्र स्थित वाराणसी नगर में ब्रह्मदत्त के राज्य करते समय 'चुल्ल-महासेठ' नामक प्रसिद्ध सेठ हुए। वह बुद्धिमान, व्यक्त और सब लक्षणों के ज्ञाता थे। एक दिन राजा की सेवा में जाते समय गली में उन्होंने एक मृत चूहे को देखा। उसी समय उन्होंने नक्षत्र का विचार करके कहा- 'बुद्धिमान कुल-पुत्र इस चूहे को ले जाकर अपने परिवार का पालन कर सकता है अथवा जीविकोपार्जन के व्यवसाय में लगा सकता है।" एक दरिद्र कुल-पुत्र जिसका नाम चुल्ल-अन्तेवासिक था, ने चुल्ल-महासेठ की बात सुन (यह बिना जाने नहीं कह रहा है सोचकर) उस चूहे को उठा, एक दुकान पर ले जाकर बिल्ली के खाने के लिए बेच डाला। उससे उसे एक 'काकणी' (कार्षापण का आठवां हिस्सा =इसे हम आज के रुपये के आठवां हिस्सा समझ सकते हैं) प्राप्त हुआ। उस 'काकणी' से उसने गुड़ खरीदा और एक बर्तन में उसने पानी भर लिया। जंगल से आते हुए मालाकारों को देखकर उन्हें थोड़ा-थोड़ा गुड़ और पानी देने लगा। मालाकारों ने उसे एक-एक मुट्ठी फूल दिया। अगले दिन वह उन फूलों को बेचकर प्राप्त मूल्य से फिर गुड़ और पानी का घड़ा लेकर पुष्प उद्यान में ही चला गया। मालियों ने उसे आधे चुने हुए पुष्पवाले वृक्ष दे दिए। अल्प समय में ही इस उपाय से उसने आठ कार्षापण प्राप्त कर लिए।
 एक दिन आंधी से राज-उद्यान में बहुत-सी सूखी लकड़ी, शाखाएं और पत्ते गिर पड़े। उद्यानपाल को उन्हें हटाने का उपाय नहीं सूझ रहा था। चुल्ल अन्तेवासिक ने आकर उद्यानपल से कहा- यदि यह लकड़ी-पत्ते मुझे दो तो मैं इन सब को यहां से उठा ले जाऊं। उद्यानपाल ने 'ले जाओ कह कर' स्वीकार कर लिया। तब वह अन्तेवासिक खेलनेवाले बालकों के दल में पहुंच, उन्हें थोड़ा-थोड़ा गुड़ दे, थोड़ी ही देर में लकड़ी, पत्ते उठाकर उद्यान के द्वार पर ढेर लगवा लिया। उस समय राजकीय कुम्हार राजपरिवार के बर्तनों को पकाने के लिए लकड़ी ढूंढते हुए राज्य-उद्यान के द्वार पर पहुंचे और लकड़ी-पत्तों का ढेर देख उसे खरीद लिया। उस दिन चुल्लअन्तेवासिक को लकड़ी-पत्ते बेचने से 16 कार्षापण मिले। उसने उससे पानी पीने का पात्र 'चाटी' तथा दूसरे पांच बर्तन खरीद लिया।  इस प्रकार धीरे-धीरे उसके पास 24 कार्षापण हो गए। उसने सोचा मेरे लिए यह एक अच्छा ढंग है। वह नगर द्वार के समीप एक पानी की 'चाटी' रखकर पाँच सौ घसियारों(तृणहारकों) को पानी पिलाने लगा। वे पूछने लगा- "सौम्य ! तूने हमारा बहुत उपकार किया। हम तेरे लिए क्या करें?" उसने कहा- "काम पड़ने पर कहूंगा।" उसके बाद इधर-उधर घूमते हुए उसने स्थलपथकार्मिक (स्थलमार्ग के तत्कालीन राज अधिकारी) से और जलपथकार्मिक(जलमार्ग के राजकर्मचारी) से मित्रता कर ली।
 एक दिन स्थलपथकार्मिक ने उससे कहा- 'कल इस नगर में घोड़ों का व्यापारी 500 घोड़े लेकर आने वाला है।' उसकी बात सुनकर चुल्ल अन्तेवासिक ने घसियारों से कहा- "आज मुझे सभी लोग मुझे घास की एक-एक पूली दो और मेरा घास न बिकने तक अपना घास न बेचो।" उन्होंने अच्छा कह स्वीकार किया और घास के 500 पूले लाकर उसके घर पर डाल दिए। घोड़ों के व्यापारी ने सारे नगर में किसी दूसरी जगह घोड़ों के लिए चारा न पाकर अंत में उसे एक सहस्त्र देकर वह घास खरीदी।
कुछ दिन बाद उसके जलपथकार्मिक मित्र ने कहा कि घाट (=पत्तन/बंदरगाह) पर बड़ी नाव आयी है। उसने सोचा यह एक अच्छा अवसर है और 8 कार्षापण में सभी सामानों से सुसज्जित एक रथ किराए पर ले, बड़ी सज-धज के साथ नाव के घाट (पत्तन/बंदरगाह) पर जा नाविक को एक अंगूठी सत्कार स्वरूप (अग्रिम राशि) दे, उससे थोड़ी दूर तक कनात तनवा, भीतर बैठ आदमियों से कह दिया- "जब बाहर से व्यापारी आयें तो उन्हें तीनों ओर से संरक्षित कर सूचित करना।" 'नाव आयी है' सुनकर वाराणसी के सौ व्यापारी सामान खरीदने के लिए आए।  आदमियों ने उनसे कहा- "यहां से तुम्हें सामान नहीं मिल सकता, अमुक स्थान के महान व्यापारी ने अग्रिम राशि दी है," सुन वह चुल्ल अन्तेवासिक के पास आए। सेवकों ने पूर्व आज्ञा के अनुसार उन्हें त्रिधा संरक्षित कर सूचना दी।
वे व्यापारी सौ थे। उनमें से प्रत्येक ने एक-एक सहस्त्र देकर उसे नाव में भागीदार बनाया। पुनः एक-एक सहस्त्र देकर अपने अपने हिस्से के माल को छुड़ा लिया। इस प्रकार चुल्ल-अन्तेवासिक दो लाख लेकर वाराणसी आया। कृतज्ञता प्रकट करने की इच्छा से वह एक लाख साथ ले चुल्ल-महासेठ के पास गया। सेठ ने पूछा- "तूने क्या करके कि यह धन कमाया?" उसने कहा- "आपके ही बताए उपाय से चार महीने के अंदर यह धन कमाया।" उसने मरे हुए चूहे से आरंभ करके सारी कहानी चुल्लसेठ को सुना दी। चुल्ल-महासेठ ने इस प्रकार के तरुण को किसी दूसरे के पास छोड़ना अच्छा नहीं, सोच उसे अपनी तरुण कन्या दे, सारे परिवार का स्वामी बना दिया। चुल्ल-महासेठ की मृत्यु के बाद उसे उस नगर के 'नगर सेठ'  का पद प्राप्त हुआ।

कहानी का संदेश

"चतुर, मेधावी व्यक्ति थोड़ी-सी भी आग को फूँककर बढ़ा लेने के समान, थोड़े से मूलधन से अपने को उन्नत कर लेता है।" मतलब साफ है कि बिजनेस के लिए बुद्धिमत्ता चाहिये पूँजी नहीं। पूँजी तो सूझबूझ से अपने आप बनती चली जाती है।

गरीबों, मजलूमों के आर्थिक सशक्तिकरण के लिए प्रेरणा देनेवाली यह कहानी चुल्लसेट्ठि जातक से ली गयी है। यूँ तो यह कहानी ढाई हजार साल पहले की है लेकिन जीरो से हीरो बनने वाले बड़े-बड़े उद्योगपतियों के हजारों उदाहरण आज भी हमें मिल जाते हैं।

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