अपने ही इतिहास को विकृत करने से बाज आइये
अपने ही इतिहास को विकृत करने से बाज आइये
बहुजन इतिहास को विकृत करने की मानसिकता
विगत कई दिनों से सोशल मीडिया में बामसेफ की स्थापना के बारे में
गलत और भ्रमित करने वाली जानकारी फैलायी जा रही है। यह काम सीधे तौर पर कोई संघी नहीं
बल्कि मिशन के नाम पर अपनी धन्धागिरी चलाने वाले बोरकर और बामन मेश्राम की करतूत है।
यह उनकी कुंठित और इतिहास को विकृत करनेवाली मानसिकता का परिचायक है।
वास्तविक तथ्य यह है कि बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम जी ने 15 अगस्त
1971 को आनन्द हाउसिंग सोसायटी, पुणे में स्थित श्री एल. डी. शिन्दे के घर पर बहुजनों
के उत्थान और कल्याण के निमित्त जो पहला संगठन बनाया उसका नाम था "अनुसूचित जाति,
अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ी जातियाँ और अल्पसंख्यक कर्मचारी कल्याण संघ"। कुछ
औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद एक सितंबर 1971 से इसकी सदस्यता का अभियान चलाया गया
था। छः सप्ताह में ही लगभग 1000 पढ़े लिखे कर्मचारी इसके सदस्य बन चुके थे। इन सदस्यों
में 50% से अधिक स्नातक, दोहरे स्नातक और परास्नातक थे। बाकी बचे सदस्यों में कुछ सदस्य
कम पढ़े लिखे होने के बावजूद भी वे संघ के लिए बहुत मूल्यवान थे क्योंकि वे सामाजिक
स्तर पर काफी सक्रिय, प्रतिबद्ध और प्रेरक थे। इस संघ की पहली बैठक 14 अक्टूबर
1971 को हुई थी। इस अवसर पर मान्यवर कांशीराम साहब ने छः पृष्ठों की एक बुकलेट प्रकाशित
की थी जिसमें 'ऐसे संघ की आवश्यकता क्यों? संघ के लक्ष्य एवं उद्देश्य, संघ की कार्य
प्रणाली क्या होगी, संगठन की संरचना, कोष, कुछ प्रश्न, कुछ संदेह आदि' विषयों पर प्रकाश
डाला था। संघ की स्थापना का प्रथम वर्षगाँठ पूना में बड़े धूम-धाम से मनाया गया था।
इस समारोह में तत्कालीन रक्षा मंत्री बाबू जगजीवनराम, प्रतिभा ताई पाटिल (जो बाद में
भारत की राष्ट्रपति बनीं) जैसी अनेक नामचीन हस्तियों ने सम्मिलित होकर कर्मचारियों
को संबोधित किया था। यह देश के दलित-शोषित समुदाय के अखिल भारतीय सामाजिक व राजनीतिक
आन्दोलन की मजबूती, दूरदृष्टि और रणनीति की आधारशिला थी। इसी संगठन की नींव पर मान्यवर
कांशीराम साहब ने बामसेफ (BAMCEF) की स्थापना की।
इस प्रकार हमें यह अच्छी तरह से जान लेना चाहिए कि बामसेफ के पहले
1971 में ही मान्यवर कांशीराम साहब ने "अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य
पिछड़ी जातियाँ और अल्पसंख्यक कर्मचारी कल्याण संघ पूना"* नामक संगठन बनाया था
जिसे वे बामसेफ की जननी अर्थात "बामसेफ की माँ" कहते थे। उसके अध्यक्ष
कांशीराम साहब स्वयं थे, मधु परिहार महासचिव और बी. ए. दलाल कोषाध्यक्ष थे। इस संगठन
का कार्यालय 49 बॉम्बे रोड, बोपोड़ी, पूना-3 में था। तब उस संगठन में न खापर्डे का अता-पता
था और न दीनाभाना की कोई भूमिका थी। (यह सर्वविदित है कि दीनाभाना वाले प्रकरण की लड़ाई
भी मान्य. कांशीराम जी ने कारखाना प्रबंधन से लड़ी थी, मामले को कोर्ट तक ले गये थे,
अपना पैसा लगाया था और अन्ततः जीत हासिल की थी।) इसी संगठन के कोख से 1973 में बामसेफ
की अवधारणा को कांशीराम साहब ने जन्म दिया और लगातार पाँच वर्षों के अथक परिश्रम से
संगठन का देशव्यापी प्रचार प्रसार करके अन्ततः 1978 में बामसेफ का जन्मोत्सव दिल्ली
में मनाया।
अब जिन लोगों ने कांशीराम जी और मिशन तथा समाज के साथ गद्दारी और
धोखेबाजी करके तथा कांग्रेस के हाथों में खुद को बेचकर (इस संबंध में मान्य. कांशीराम
जी का पूरा भाषण यू ट्यूब पर मौजूद है) बामसेफ को तोड़ा था उनमें खापर्डे, बोरकर, बामन
मेश्राम जैसे मिशन के नाम पर धंधा करने वाले लोग थे जिनके आज कई गुट बन गये हैं और
ये सभी गुट अपनी असली-नकली की लड़ाई सुप्रीम में लड़ रहे हैं। उनकी अम्बेडकरवादी मिशन
और कांशीराम साहब के प्रति अहसान फ़रामोशी और गद्दारी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता
है कि वे बामसेफ के नाम पर किये जाने वाले अपने-अपने गुटों के कार्यक्रमों में बामसेफ
के संस्थापक मान्यवर कांशीराम जी का नाम भी नहीं लेते और न ही अपने पोस्टर बैनर में
उनकी तस्वीर लगाते हैं। इतिहास को विकृत करनेवाले इन बेईमानों से बहुजन समाज को सावधान
रहने की जरूरत है।
-प्रो. महेश प्रसाद अहिरवार
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