बुद्ध और बोधिसत्व

'बुद्ध' किसे कहते हैं?
Who is 'Buddha' ?
'बुद्ध' शब्द का अर्थ क्या है?
What is the meaning of word 'Buddha' ?
'बुद्ध' का अर्थ है सम्पूर्ण ज्ञान का प्रतीक बुद्धत्व पद का लाभी व्यक्ति
'बुद्ध' नाम बोधि प्राप्ति के बाद सम्बोधि प्राप्त करने वाले व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

"न मातरा कतम, 
न पितरा कतम 
विमोक्खन्ति।
एतं बुद्धानं भगवन्तान बोधिया मूले.... पञ्ञत्ति।"

-  न माता ने, न पिता ने यह नाम उनको दिया बल्कि विमोक्ष जो भगवान ने बोधि वृक्ष मूल में ज्ञान प्राप्त पुरुष- होने के कारण कहा गया।

बुद्ध असामान्य मानवी होते है। जैसे मानव इस धरती पर चलते-फिरते साधारण काम-काज करते है और अपने बाल बच्चों को पालते पोसते दिखाई देते है, वैसे बुद्ध नहीं होते है।

हम उन्हें देवता भी नहीं कह सकते, क्योंकि देवताओं में राग-द्वेष, सुख- विलास होता है। बुद्ध राग-द्वेष और विलासिता से विमुक्त होते है। सम्पूर्ण मानवीय दुर्बलताओं और असंगतियों को समूलोच्छेद करने और सर्वोत्तम ज्ञान प्राप्ति करने वाले व्यक्ति को बुद्ध कहते हैं।
बुद्ध बनने वाली व्यक्ति प्रथम बोधिसत्व के रूप में १० पारमिता पूर्ण करते हैं।

कौन सी दस पारमीता?
१) दान 
२) शील
३) नैष्क्रम्य
४) प्रज्ञा
५) वीर्य 
६) शांती 
७) सत्य 
८) अधिष्ठान 
९) मैत्री
१०) उपेक्षा

बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम सम्यक सम्बोधि प्राप्त करने के बाद बुद्ध हुए, सम्यक सम्बुद्ध हो गये।
ज्ञान-प्राप्ति के पूर्व सिद्धार्थ गौतम केवल एक बोधिसत्व थे। 

बोधिसत्व कौन और क्या होता है ?

बुद्ध बनने के लिए प्रयत्नशील प्राणी को 'बोधिसत्व' कहते हैं।

एक बोधिसत्त्व 'बुद्ध' कैसे बनता हैं?

बोधिसत्त्व को लगातार दस जन्मों तक 'बोधिसत्त्व' रहता है। 

बुद्ध बनने के लिए एक 'बोधिसत्त्व' को क्या करना होता है?

दस भूमियां प्राप्त करता है।

१) एक जन्म में वह 'मुदिता' प्राप्त करता है। जैसे सुनार सोने-चांदी के मैल को दूर करता है। उसी प्रकार एक 'बोधिसत्त्व' अपने चित्त के मैल को दूर करके इस बात को स्पष्ट रूप से देखता है कि जो आदमी चाहे पहले प्रमादी रहा हो, लेकिन यदि वह प्रमाद का त्याग कर देता है,तो वह बादल-मुक्त चन्द्रमा की तरह इस लोक को प्रकाशित करता है। जब उसे इस बात का बोध होता है तो उस के मन में मुदिता उत्पन्न होती है और उसके मन में सभी प्राणियों का कल्याण करने की उत्कट उत्पन्न होती है।

२) अपने दूसरे जन्म में वह 'विमला-भूमि' को प्राप्त होता है। इस समय बोधिसत्त्व काम-चेतना से सर्वथा मुक्त हुआ रहता है। वह कारुणिक होता है, सब के प्रति कारुणिक।  न वह किसी के अवगुण को बढ़ावा देता है और न किसी के गुण को घटाता है।

३) अपने तीसरे जीवन में वह प्रभकारी-भूमि प्राप्त करता है। इस समय बोधिसत्त्व की प्रज्ञा दर्पण के समान स्वच्छ हो जाती है। वह अनात्म और अनित्यता के सिद्धांत को पूरी तरह से समझ लेता है और हॄदयंगम कर लेता है। उसकी एक मात्र आकांक्षा ऊँची से ऊँची प्रज्ञा प्राप्त करने की होती है और इसके लिये वह बड़े से बड़े त्याग करने के लिये तैयार रहता।

४) अपने चौथे जीवन में वह अर्चिष्मती-भूमि को प्राप्त करता है। इस जन्म में बोधिसत्त्व अपना सारा ध्यान अष्टांगिक मार्ग पर केन्द्रित करता है तथा चार सम्यक व्यायामों पर केन्द्रित करता है, चार प्रयत्नों पर केन्द्रित करता है तथा चार प्रकार के ऋद्धि-बल पर केन्द्रित करता है और पांच प्रकार के शील पर केन्द्रित करता है।

५) पांचवें जीवन में वह सुदुर्जया भूमि को प्राप्त करता है। वह सापेक्ष तथा निरपेक्ष के बीच के सम्बन्ध को अच्छी तरह हॄदयंगम कर लेता है।

६) अपने छठे जीवन में वह अभीमुखी-भूमि प्राप्त होता है। अब इस अवस्था में चीजों के विकास, उनके कारण बारह निदानों को हॄदयंगम करने की बोधिसत्त्व की पूरी पूरी तैयारी हो चुकी है, और वह 'अभिमुखी' नामक विद्या उसके मन में सभी अविद्या-ग्रस्त प्राणियों के लिये असीम करुणा का संचार कर देती है।

७) अपने सातवे जीवन में बोधिसत्त्व दुरंगमा-भूमि प्राप्त करता है। अब बोधिसत्त्व देश, काल के बन्धनों से परे है, वह अनन्त के साथ एक हो गया है, किन्तु अभी भी वह सभी प्राणियों के प्रति करुणा का भाव रखने के कारण देह-धारी है। वह दूसरों से इसी बात में पृथक है कि अब उसे भव-तृष्णा उसी प्रकार स्पर्श नही करती जैसे पानी किसी कमल को। वह तृष्णा-मुक्त होता है, वह दान-शील होता है, वह क्षमा-शील होता है, वह कुशल होता है, वह वीर्यवान होता है, वह शान्त होता है, वह बुद्धिमान होता है तथा वह प्रज्ञावान होता है।
अपने इस जीवन में वह धर्म का जानकार होता है लेकिन लोगों के सामने वह उसे इस ढंग से रखता है कि उनकी समझ में आ जाय। वह जानता है कि उसे कुशल तथा क्षमाशील होना चाहिए। दूसरे आदमी उसके साथ कुछ भी व्यवहार करें वह उद्विग्नता-रहित होकर उसे सह लेता है क्योंकि वह जानता है कि अज्ञान के कारण ही वह उसके मंशा को ठीक-ठीक नहीं समझ पा रहे हैं। इसके साथ-साथ वह दूसरों का भला करने के अपने प्रयास में तनिक भी शिथिलता नहीं आने देता, और न वह अपने चित्त को प्रज्ञा से इधर-उधर भटकने देता है; इसलिये इस पर कितनी भी विपत्तियां आयें वे उसे सुपथ से कभी नहीं हटा सकती।

८) अपने आठवें जीवन में वह 'अचल' हो जाता है। 'अचल' अवस्था में बोधिसत्त्व कोई प्रयास नहीं करता। वह कृत-कृत्य हो जाता है। उससे जो भी कुशल -कर्म होते हैं वे सब अनायास होते हैं। जो कुछ भी वह करता है उसमें सफल होता है।

९) अपने नौवें जीवन में वह साधुमती-भूमि प्राप्त होता जाता है। जिसने तमाम धर्मों को  या पद्धतियों को जीत लिया है अथवा उनके भीतर प्रवेश पा लिया है, सब दिशाओं को जीत लिया है, समय की सीमाओं को लांघ गया है, वही 'साधु मति' अवस्था प्राप्त कहलाता है।

१०) अपने दसवें जीवन में बोधिसत्त्व 'धर्म-मेधा' बन जाता है। उसे 'बुद्ध' की दिव्य-दृष्टि प्राप्त हो जाती है।

बुद्ध होने की अवस्था के लिए आवश्यक इन दस बलों (भूमियों) को बोधिसत्त्व प्राप्त करता है।
एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होने पर बोधिसत्त्व को न केवल इन दस भूमियों को प्राप्त करना होता है बल्कि उसे दस पारमिताओं को भी पूर्णता को पहुंचाना होता है।
एक जन्म में एक परमिता की पूर्ति करनी होती है। पारमिताओं की पूर्ति क्रमशः करनी होती है। एक जीवन में एक पारमिता कि पूर्ति करनी होती है, ऐसा नहीं कि थोड़ी एक, थोड़ी दूसरी।
जब दोनों तरह से वह समर्थ सिद्ध होता है तभी एक बोधिसत्त्व बुद्ध बनता है। बोधिसत्त्व के जीवन की पराकाष्ठा ही 'बुद्ध' बनना है।
 जातकों का सिद्धांत अथवा बोधिसत्त्व के अनेक जन्मों का सिद्धांत ब्राह्मणों के अवतारवाद के सिद्धांत से सर्वथा प्रतिकूल है अर्थात ईश्वर के अवतार धारण करने के सिद्धांत से। ब्राह्मण वाद शास्वत वाद यानी आत्मा का नित्य होना पर आधारित है। लेकिन बुद्ध ने प्रतिपादित किया कि जगत में कुछ भी शास्वत नहीं। सभी पदार्थ या वस्तु् विचार आदि अनित्य है, परिवर्तनशील है। बुद्ध ने संतति वाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया। यहां संसरण मन का, चित्त का होता है। च्युत चित्त जब प्रतिसंधि में पडता है यानी नया विज्ञान उत्पन्न होता है। नया विज्ञान उस च्युत चित्त से उत्पन्न हुआ है इस लिए उसको वहीं माना जाता है क्योंकि च्युति के समय जो गुणधर्म होते है वहीं गुणधर्म लेकर नया चित्त उत्पन्न होता है। अर्थात "वही" नहीं है लेकिन "वही" में से उत्पन्न हुआ इस लिए "वही" है। इसे सिलसिला कहते है, संसरण कहते है। इस मायने में बोधिसत्व  बुद्ध बनने के लिए पारमीता पूर्ण करने के लिए जन्म के बाद जन्म ग्रहण करते है।
जातक कथाओं का आधार है कि बुद्ध के व्यक्तित्व में गुणों की पराकाष्ठा का समावेश हुआ है।

बुद्ध बनने से पूर्व बोधिसत्त्व के लिए दस जन्मों तक श्रेष्ठतम जीवन की शर्त और किसी धर्म में भी नहीं है। यह अनुपम है। कोई भी दूसरा धर्म अपने संस्थापक के लिए इस प्रकार की परीक्षा में उत्तीर्ण होना आवश्यक नहीं ठहरता।
जो व्यक्ति बुद्ध होता है उस में दस गुण होते हैं। इसलिए, बुद्ध को दसबल भी कहा जाता है।
तथागत बुद्ध को अनेक नाम से संबोधित किया गया है। इन में एक नाम है दशबल।

गुजरात की धरती भी बुद्ध की वाणी से पल्लवित है। देवकी मोरी (Arvalli District) में  बुद्ध विहार की खुदाई में मिले पुरातत्व साक्ष्य में बुद्ध के relics के साथ दसबल का उल्लेख है।
जैसे-
"दशबलशरीरनिलयशशुभशैलमय: स्वयं वराहेण।
कुट्टिमकतो कृतोये समुदगकस्सेन पूत्रेण ।।"

अर्थात दसबल के शरीर का यह शुभपाषाण का निवास स्थान स्वयं सेन पुत्र वराहे कुट्टिमठ में रखा ।

बुद्ध के दश बल क्या है ?

सम्यक सम्बुद्ध के दस बल है-

१) उचित को उचित और अनुचित को अनुचित के तौर पर ठीक से जानना।

२) भूत, भविष्य, वर्तमान के किए हुए कर्मों के विपाक को स्थान और कारण के साथ ठीक से जानना।

३) सर्वत्र गामिनी प्रतिपदा को ठीक से जानना।

४) अनेक ब्रह्मांड, नाना धातु वाले लोको को ठीक से जानना।

५) नाना विचार वाले प्राणीयों को ठीक से जानना।

६) दूसरे प्राणियों की इन्द्रियों की प्रबलता और दुर्बलता को ठीक से जानना।

७) ध्यान,विमोक्ष, समाधि,समापत्ति के मल,निर्मलकरण और उत्थान को ठीक से जानना।

८) पूर्व जन्मों की बातों को ठीक से जानना।

९) अलौकिक विशुद्ध, दिव्यचक्षु से प्राणियों को उत्पन्न होते,मरते, स्वर्ग लोक में जाते हुए देखना।

१०) आश्रव रहित चित्त की विमुक्ति और प्रज्ञा की विमुक्ति का साक्षात्कार।
'बुद्ध' कोई व्यक्ति का नाम नहीं है। यह एक 'उच्चतम ज्ञान की प्राप्ति' अथवा 'ज्ञान प्राप्ति की उच्चतम अवस्था' है जिसकी प्राप्ति कोई भी प्रयत्नशील व्यक्ति प्राप्त कर सकता है।
कोई भी व्यक्ति बुद्ध गुणों की प्राप्ति करता है वह बुद्ध होता है।
बौद्ध साहित्य में मुख्यत: जहां 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग हुआ है, वह गौतमबुद्ध के संदर्भ में उपयोग किया है। इसलिए, सामान्यतः बुद्ध का अर्थ गौतमबुद्ध करते हैं। वास्तव में बुद्ध शब्द विशेषण है।

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