बौद्ध धम्म क्या है ?
बौद्ध धम्म क्या है ? हम जानें और समझें
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तथागत बुद्ध ने अपने धम्म को सारनाथ के ऋषिमृगवन में धम्मचक्रप्रवर्तन करते हुए पंचवर्गीय परिब्राजकों के समक्ष रखा था और फिर बाद में प्रचार करते समय अपने अनेक प्रवचनों में उसकी व्याख्या की थीं। बौद्ध ग्रंथों-अंगुत्तर निकाय ,संयुत्त निकाय,महावग्ग,धम्मपद,मज्झिम निकाय ,दीघनिकाय के महानिदान सुत्त में उनके धम्म का विवरण हमें मिलते हैं। बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक 'दि बुद्ध एण्ड हिज धम्म' में इस पर विस्तार से चर्चा की हैं।
सभी धर्मों में ईश्वर , ईश्वर के अवतार और पैगम्बर या ईश्वर का ज्येष्ठ पुत्र या दूत होते हैं और उन्हीं के नाम पर धर्म का संचालन किया जाता है। हर धर्म में ईश्वर के अवतार या पैगम्बर या ईश्वरीय दूत को मानना तथा उनके बताए हुए मार्ग और कही हुई बातों को मानना जरुरी है, क्योंकि वे ईश्वरीय बताए गए होते हैं।किन्तु तथागत बुद्ध ने अपने धम्म में ऐसे किसी भी स्थान का दावा नहीं किया और उन्होंने कहा है कि वे मोक्ष -दाता नहीं हैं, क्योंकि वे किसी भी व्यक्ति को दुखों से मुक्त करने का आश्वासन नहीं देते हैं। उन्होंने स्वयं को मार्ग -दाता कहते हुए कहा है कि वे व्यक्ति को दुखों से मुक्त होने का केवल ज्ञान देते हैं और उसे रास्ता दिखाते हैं।
वास्तव में उनका धम्म एक आविष्कार या खोज (Discovery) है, क्योंकि यह मानव जीवन और ऐतिहासिक दौर में विकसित उनकी स्वाभाविक -प्रवृतियों का गंभीर अध्ययन तथा यथार्थ समझ का परिणाम है। इसमें कहा गया है कि दुखों से मुक्ति और विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही प्रयास करना होता है और वह अपने कर्म से स्वयं अपना प्रकाश बन सकता है। इसलिए उनका धम्म मनुष्यों के लिए एक मनुष्य द्वारा खोज किया हुआ धम्म है ,न कि किसी ईश्वरीय दूत का। इसलिए यह प्रचलित धर्मों से बिल्कुल अलग है जो मानव के सदाचार और नैतिक आचरण पर आधारित है।
तथागत बुद्ध ने अपने प्रवचनों में धम्म की निम्नांकित छः विशेषताओं की व्याख्याएं की थीं-
1.जीवन की पवित्रता बनाए रखना धम्म है-
जीवन की पवित्रता तीन प्रकार की होती हैं-
(क). मन की पवित्रता, (ख). शरीर की पवित्रता और (ग). वाणी की पवित्रता।
(क).जब व्यक्ति ईर्ष्या-द्वेष का विचार मन में नहीं रखता है , दूसरे की चीजों के प्रति लोभ मन में नहीं रखता है, भले-बुरे कर्म का कुछ भी फल नहीं होता का विचार मन में नहीं रखता है और दान,दया तथा त्याग करने से कुछ नहीं होता के विचार मन में नहीं रखता है। तो ये चार मानसिक पवित्रता हैं। इनके अलावा जब वह हमेशा तर्क, यथार्थपूर्ण एवं बुद्धिसम्मत सम्यक दृष्टि को मन में रखता है तो यह मन या मानसिक पवित्रता कहलाता है।
(ख).जब व्यक्ति प्राणियों की हिंसा से अलग रहता है, चोरी नहीं करता है और व्यभिचार से अपने को अलग रखता है तो ये तीन शारीरिक पवित्रता है।
(ग).जब व्यक्ति झूठ नहीं बोलता है, चुगली नहीं करता है, कठोर वचन या गाली- गलौज का इस्तेमाल नहीं करता है और व्यर्थ की बातचीत या बकवास नहीं करता है तो ये चार वाणी की पवित्रता है।
2.जीवन में पूर्णता प्राप्त करना धम्म है-
सभी व्यक्ति अपने जीवन में विकास और शांति चाहते हैं। विकास और शांतिपूर्ण जीवन के लिए कठिन परिश्रम से कुशलता और पूर्णता हासिल करने की जरूरत होती है। तथागत बुद्ध ने कहा है कि इसके लिए व्यक्ति को मानसिक, शारीरिक और वचन की पूर्णता प्राप्त करना होता है। जब मनुष्य अपने मन में उत्पन्न विकारों को दूर करने की लगातार कोशिश करते हैं और तो वे अपने मन को दोषों या विकारों से पूर्णतः मुक्त कर लेते हैं ।तब उनमें दया,दान ,त्याग एवं क्षमा करने की भावना जागृत होती है और लोभ,ईर्ष्या-द्वेष एवं आलस्य छोड़ने की प्रज्ञा और विचारों का उदय होता है।वे बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय के लिए तन-मन-वचन से समर्पित हो जाते हैं तथा दूसरे लोगों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करने लगते हैं।
3.तृष्णा का त्याग करना धम्म है-
प्रत्येक आदमी अपने विकास के लिए लाभ अर्जित करना चाहताहै और धन संग्रह की इच्छा रखता है।धन -सम्पत्ति के स्वामी हो जाने एवं बने रहने के लाभ की इच्छा से ही तृष्णा पैदा लेती है। जब उसमें अपने पद एवं सम्पत्ति के लिए बुरी तरह इच्छा , मोह और लोभ पैदा हो जाता है तो वह दिन -रात अनेक बुराईयों -असंतोष, लड़ाई -झगड़े,ठगी-बेईमानी,झूठ-फरेब आदि में पूर्णतः लिप्त हो जाता है। इसलिए व्यक्ति द्वारा इस प्रकार की तृष्णा से मुक्त होने के लिए लोभ और असीमित इच्छा पर नियंत्रण करना आवश्यक होता है। इसीलिए धम्मपद में कहा गया है कि - "स्वस्थ शरीर और मन से बढ़कर कर लाभ नहीं तथा संतोष से बढ़कर धन नहीं।"
4.संसार में सभी वस्तुओं एवं संस्कारों को अनित्य या अस्थाई एवं परिवर्तनशील मानना धम्म है-
जो व्यक्ति दुनिया की सभी चीजों एवं जीव-जंतुओं को परिवर्तनशील,अस्थाई और ऋष्टि-विनाश तथा कार्य-कारण के नियमों को स्वीकार करता है वह वास्तव में धम्म को मानता है। तथागत बुद्ध ने कहा है कि सभी प्राणियों और वस्तुओं का निर्माण जल, वायु,अग्नि और पृथ्वी नामक चार महाभूतों के संयोग से हुआ है। जब ये चारों महाभूत अलग अलग हो जाते हैं तो प्राणी की मृत्यु हो जाती है और वस्तु का रुप और गुण बदल जाता है तथा पहले का स्वरुप परिवर्तित हो जाता है।
यदि सारी चीजें और मनुष्य सहित सभी प्राणी स्थाई एवं अपरिवर्तनशील होता तो वस्तुओं और प्राणियों का विकास ही रुक जाता। नई चीजें पैदा नहीं होतीं और न उसमें किसी प्रकार का विकास होता। उसी तरह नये प्राणियों का न जन्म होता,न उसका विकास होता और न मृत्यु। परिवर्तनशीलता और अस्थायित्व प्रकृति का नियम है , उसी प्रकार विकास और विनाश तथा जन्म और मृत्यु भी प्रकृति का नियम है। जब व्यक्ति इस धम्म को जान लेता है और मानने लगता है तो उसमें जीवन,सम्पत्ति,पद और रिश्तेदारों के प्रति उपेक्षा एवं अनासक्ति की भावनाएं जगती हैं। इससे उसे यथार्थ का ज्ञान हो जाता है और वह काल्पनिक चीजों और अन्धविश्वासों को मानना छोड़ देता है।
5.मानव जीवन के नैतिक नियमों का आधार कर्म को मानना धम्म है-
तथागत बुद्ध ने कहा है कि दुनिया में नैतिकता के नियम मनुष्य के कर्मों के नियम आधार पर बने हुए हैं। विश्व में नैतिकता के नियम चाहे अच्छा हो या बुरा वह मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्मों पर ही निर्भर करता है,न कि किसी ईश्वर पर या दैवी शक्ति पर।जिस प्रकार आकाश के नक्षत्र एक नियम से चलते हैं , कोई तीव्र गति के नियम से तो कोई निम्न गति से या मध्यम गति से ।उसी प्रकार ऋतुओं के भी आगमन में एक नियम -क्रम होता है।वृक्ष का भी एक नियम -क्रम है कि उसका जन्म बीज से होता है, विकास के बाद उसमें फूल और फल लगते हैं और फिर फलों से बीज प्राप्त होता है।उसी प्रकार व्यक्ति का कर्म का परिणाम भी उसका या अन्य व्यक्ति का पीछा करता है तथा प्रभावित करता है जैसा कि रात और दिन एक दूसरे का पीछा करता है।कुशल या अच्छे कर्मों का परिणाम अच्छा और लाभदायक होता है तथा वह उस व्यक्ति या अन्य लोगों के लिए भी अच्छा और लाभकारी सिद्ध होता है।
इसलिए तथागत गौतम बुद्ध ने कहा है कि मनुष्य को कुशल कार्य करना चाहिए ताकि उसके नैतिक -क्रम को हानि नहीं पहुंचे और अन्य लोगों को भी हानि एवं दुख नहीं पहुंचें। मनुष्य के कर्म करने और उसके परिणाम आने के समय में थोड़ा अन्तर या काफी अन्तर हो सकता है। 1. कुछ कर्म का फल शीघ्र मिल जाता है जिसे दिट्ठधम्मवेदनीय कर्म कहा गया है।
2. कुछ कर्म का फल थोड़े समय के बाद मिलता है जिसे उपपज्जवेदनीय कर्म कहा गया है ।
3. कुछ कर्म का फल बहुत समय के बाद या अनिश्चित समय पर मिलता है जिसे अपरापरियवेदनीय कर्म कहा गया है।
4. कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिसका परिणाम या फल नहीं दिखाई देता है, क्योंकि वे किसी अन्य सबल कर्म के द्वारा बाधित हो जाते हैं या वे स्वयं बहुत दुर्बल होते हैं।
इस प्रकार कर्मवाद की स्थापना करते हुए गौतम बुद्ध ने कहा है कि प्रकृति की तरह कर्म नियम ही मनुष्य की नैतिकता के नियम आधार होते हैं। यह कर्मवाद भी कार्य- कारण के नियमों से संचालित होता है ।इसमें कोई ईश्वर की इच्छा,भाग्य का लिखा और पूर्व जन्म के कर्म-फल का सिद्धांत नहीं होता है। व्यक्ति द्वारा ऐसे विचार को मानना और उसके अनुसार आचरण करना धम्म है
6. निर्वाण प्राप्त करना धम्म है-
बौद्ध धम्म में निर्वाण प्राप्त करना मुख्य केन्द्र बिन्दु माना गया है। यह किसी व्यक्ति के सर्वोच्च अवस्था का परिचायक होता है। इसी को बोधि होना या बुद्धत्व प्राप्ति होना कहा गया है।इसे निब्बानं परम सुखम अर्थात परम सुख की अनुभूति प्राप्त होना भी कहा गया है।
बौद्ध धम्म-ग्रंथों में वर्णित है कि निर्वाण दो प्रकार के होते हैं-
पहला है- क्लेश निर्वाण और दूसरा- स्कन्ध निर्वाण या परिनिर्वाण है।
राग, द्वेष, मोह, मान, मद, मिथ्या-दृष्टि, निर्लज्जता, विचिकित्सा, उद्धतापूर्वक किया गया कुकर्म, प्रमाद या आलस्य आदि दस क्लेशों से मुक्ति पा लेने की स्थिति को ही क्लेश-निर्वाण कहा गया है। यह निर्वाण कोई भी मनुष्य इसी जीवन में प्राप्त कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन काल में ही उपर्युक्त बुराईयों से मुक्त हो जाता है तथा वह संसार में रहकर भी सांसारिकता से निर्लिप्त रहता है तो इस तरह के मुक्त व्यक्ति को अर्हंत कहा जाता है। तथागत बुद्ध ने कहा है कि निर्वाण का मतलब है- "रागाग्नि,द्वेषाग्नि ,कामाग्नि तथा मोहाग्नि का बुझ जाना।" ऐसी स्थिति मध्यम- मार्ग के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। यह मध्यम मार्ग है- सम्यक दृष्टि,समर्थक संकल्प,सम्यक वचन,समर्थक कर्म, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम या प्रयत्न, सम्यक स्मृति और समर्थक समाधि के अष्टांगिक मार्ग पर चलना। मध्यम-मार्ग मोह और प्रमाद को नाश करताहै, यह आंख देने वाला है, यह सही ज्ञान देने वाला है और यह मनुष्य को शांति, अभिज्ञान, बोधि एवं निर्वाण की ओर ले जाता है।
गौतम बुद्ध ने निर्वाण की अवस्था और विशिष्टता पर प्रकाश डालते हुए कहा है- इस अवस्था को प्राप्त हुआ व्यक्ति लाभ-हानि, यश-अपयश,निन्दा -प्रशंसा, सुख-दुख आदि स्थितियों को प्राप्त होने से विचलित नहीं होता तथा शोक, पाप और भय से मुक्त रहकर वह मंगलमय हो जाता है। अर्हंतों के पुराने सब दुख पैदा करने वाले कर्म खत्म हो जाते हैं और नये वैसे कर्मों की उत्पत्ति नहीं होती हैं, दुखों के पुनर्जन्म में उनकी आसक्ति नहीं होती है और उनकी इच्छाएं शेष नहीं रहतीं। वे धैर्यवान वीर बुझे हुए प्रदीप की तरह निर्वाण को प्राप्त होते हैं। वे अपने शेष जीवन को बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय में समर्पित करते हैं। उनका जीवन सभी प्राणियों के प्रति स्वार्थ रहित, दया, करुणा, मैत्री एवं कल्याणकारी होता है।
चूंकि निर्वाण प्राप्ति के बाद भी अर्हंत का शरीर जीवित रहता है, अतः जब उसके शरीर का अंत हो जाता है तो उसे स्कन्ध-निर्वाण या परिनिर्वाण कहा जाता है। शरीर की मृत्यु के साथ ही पंच स्कन्धों अर्थात छः ज्ञानेन्द्रियां और उनकी रुप, वेदना, संज्ञा,संस्कार एवं चेतना की स्पर्श-क्रियाएं रुक तथा बुझ जाती हैं, इसलिए इसे स्कन्ध- निर्वाण या परिनिर्वाण कहा गया है।
बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक "भगवान बुद्ध और उनका धर्म" में निर्वाण और परिनिर्वाण की विस्तार से व्याख्या की हैं। तथागत बुद्ध ने कहा है कि सम्पूर्ण उच्छेदवाद यानी शरीर को मोक्ष लाभ के लिए तपस्या कर पूर्णतःसमाप्त कर देना एक अन्त या छोर है और दूसरा अन्त या छोर है--तमाम वेदनाओं एवं चेतना का बुझ जाना तथा शरीर की मृत्यु होना आदि परिनिर्वाण प्राप्त होना। उन्होंने कहा है कि निर्वाण उनके बीच का मध्यम -मार्ग है। उन्होंने वैदिक और उपनिषद मानने वाले ब्राह्मणवादीे लोगों के मृत्यु के बाद आत्मा को मोक्ष प्राप्त होना और ब्रह्म की प्राप्ति होने की असत्य बातों का भी खंडन किया।उसी प्रकार उन्होंने कुछ श्रमण और भौतिकवादी पंथों के मोक्ष और सुख प्राप्ति के रूप में विचारों को भी अस्वीकार कर दिया, क्योंकि उपर्युक्त दोनों तरह के विश्वासों और विचारों से समाज और दूसरे लोगों को कोई लाभ नहीं मिल सकता था। इसलिए उन्होंने निर्वाण जैसी नयी अवस्था की खोज की थी।
इस प्रकार बुद्ध के निर्वाण में तीन बातें महत्वपूर्ण हैं-
1. बुद्ध के निर्वाण में किसी मनुष्य विशेष के आत्मा का सुख नहीं, बल्कि मनुष्य सहित सभी प्राणियों का सुख अन्तर्निहित है,
2. संसार में रहते हुए निर्वाण प्राप्त कर मनुष्य सुख-शांति को प्राप्ति करता है न कि आत्मा की मुक्ति और मृत्यु के बाद स्वर्ग की प्राप्ति होने पर,
3. मनुष्य की रागाग्नि, मोहाग्नि और द्वेषाग्नि को शांत करना निर्वाण का मूल आधार और उद्धेश्य है। इस प्रकार तथागत बुद्ध के दुख-निरोध या निर्वाण का स्वरुप और विशिष्टता तात्कालीन प्रचलित धर्मों एवं दार्शनिक सम्प्रदायों से बिल्कुल भिन्न था। यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि उस समय था। इसलिए इसे धम्म माना गया है।
इस प्रकार बौद्ध धम्म उपर्युक्त सभी विचारों को एक साथ लेकर आचरण में उतारने के कर्मों कहा गया है। धम्म का पालन करने से व्यक्ति एवं समाज दोनों को लाभ पहुंचता है। इसके अनुपालन से शांति, सुव्यवस्था और समृद्धि आती हैं। इसलिए कहा गया है कि यह धम्म आदि में कल्याणकारी है, मध्य में कल्याणकारी है और अन्त में भी कल्याणकारी है।
नमो बुद्धाय। जय भीम।
विलक्षण रविदास
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