समाधि क्या है?

समाधि क्या है?

तीन धर्म स्कंध 
१.शील धर्म स्कंध
२.समाधि धर्म स्कंध
३.प्रज्ञा धर्म स्कंध

समाधि धर्म स्कंध: 
समाधि क्या है?
कुशल चित्त की एकाग्रता ही समाधि है।
समाधान के अर्थ में समाधि है।
एक आलम्बन में चित्त-चैतसिकौं का बराबर और भली-भांति प्रतिष्ठित होना समाधि है। 

विक्षेप न होना समाधि का लक्षण है।

समाधि के प्रकार कितने है?

समाधि अनेक प्रकार की होती है। विेक्षेप न होने के लक्षण से तो एक ही प्रकार की है।
  
उपचार-अर्पणा के अनुसार तीन प्रकार की है-हीन, मध्यम, उत्तम।

उपचार समाधि :

छ: अनुस्मृति स्थान, मरण स्मृति,उपसमानुस्मृति, आहार में प्रतिकूलता का ख्याल,चार धातुओं का व्यवस्थापन- इनके अनुसार प्राप्त चित्त की एकाग्रता और जो अर्पणा समाधि के पूर्व भाग में एकाग्रता होती है-यही उपचार समाधि है।
जब तक ध्यान क्षीण रहता है और अर्पणा की उत्पत्ति नहीं होती,तब तक उपचार समाधि का व्यवहार होता है। उपचार-भूमि में वितर्क, विचार आदि ध्यानांगों का प्रादुर्भाव नहीं होता, यद्यपि चित्त समाहित होता है। जिस प्रकार ग्राम का समीपवर्ती प्रदेश ग्रामोपचार कहलाता है,उसी प्रकार अर्पणा समाधि के समीपवर्ती होने के कारण उपचार यह संज्ञा पड़ी है। उपचार- भूमि में ध्यानांग मजबूत नहीं होते, परंतु अर्पणा में अंगो का प्रादुर्भाव होता है और वे सुदृढ हो जाता है। जिस प्रकार,बालक खड़े होकर चलने की कोशिश करता है,तो आरम्भ में खडा होता है और बार बार गिर पड़ता है, उसी प्रकार उपचार समाधि के उत्पन्न होने पर चित्त की स्थिति होती है।

अर्पणा समाधि: 

प्रथम ध्यान का परिकर्म, प्रथम ध्यान का अनन्तर प्रत्यय से प्रत्यय होता है, एकाग्रता होती है-वही अर्पणा समाधि है।

लौकिक समाधि:

काम, रूप और अरूप ये तीनों भूमियों में कुशल चित्त की एकाग्रता लौकिक समाधि है।

लोकोत्तर समाधि:

आर्य मार्ग से युक्त एकाग्रता लोकोत्तर समाधि है।

ध्यानों के अनुसार समाधि के ओर भी प्रकार है जैसे- सप्रीतिक समाधि,निष्प्रीतिक समाधि,सुखसहगत समाधि, उपेक्षागत समाधि आदि।

समाधि से याने सम्यक समाधि से चित्त की एकाग्रता उपलब्धि होती है, जिससे चित्त को वश में किया जाता है। चित्त अत्यंत चंचल रहता है और इसका विकारवश होना सहज स्वभाव है।चित्त जंगली प्राणी की तरह उच्छङ्खल रहता है। जैसे, जंगली हाथी या जंगली भैंसे को पालतू बनाने पर मनुष्य के कामों में उसकी सब शक्ति उपयोग में आती है, वैसे ही,चित्त को एकाग्र करके उसको वश में कर सकते है और वश में किये चित्त की अमाप शक्ति अपने काम में लाना संभव हो सकता है।

आठ ध्यान-समाधियाँ

१. पहली ध्यान-समाधि -
पहले ध्यान में यद्यपि मन ध्यान के आलंबन से जुड़े रहने का प्रयत्न करता रहता है, परंतु वितर्क और विचारों का सिलसिला भी साथ-साथ चलता रहता है। साधक काम-भोग और अकुशल दुर्भावना को अपने विचारों से दूर रखता है । इस विवेक के कारण मन में प्रीति-प्रमोद जागता है और शरीर पर पुलक -रोमांच की सुखद अनुभूति होती है । साधक इस प्रीति-सुख की संज्ञा में समाधिस्थ हो जाता है । 
यह पहली ध्यान समाधि है ।

२. दूसरी ध्यान-समाधि –
इस ध्यान में वितर्क और विचार का सिलसिला नितांत निरुद्ध हो जाता है । वितर्क और विचारों से मुक्त हुए चित्त में जो शांति प्रकट होती है उसमें स्थित हुआ साधक चित्त के प्रीति-प्रमोद और शरीर के पुलक-रोमांच के सुख की संज्ञा में समाहित होता है । 
यह दूसरी ध्यान-समाधि है ।
यह जो निर्विचार, निर्विकल्प और निर्वितर्क की अवस्था है, आगे जाकर इसी को चित्तवृत्तियों का निरोध' होना कहा गया और इसे ही ध्यान की उच्च अवस्था मानने लगे, जबकि ऐसा नहीं है । वस्तुतः यह द्वितीय ध्यान की समाधि है। चित्तवृत्तियां निरुद्ध हुयीं परंतु अभी चित्त और शरीर की संज्ञा कायम है । इस ध्यान की आगे और गहन अवस्थाएं हैं ।  

३. तीसरी ध्यान-समाधि –
इसमें चित्त पर महसूस होने वाली प्रीति-प्रमोद की संज्ञा भी समाप्त हो जाती है । जिस शारीरिक सुख की प्रसन्नता कायम रहती है, साधक उसी की संज्ञा में समाहित हो जाता है । यह तीसरी ध्यान-समाधि है ।

४. चौथी ध्यान-समाधि – 
चित्त के सौमनस्य (चित्त-उल्लास) और दौर्मनस्य (चित्त-संताप), यानी मानसिक सुख और दुःख की संज्ञा का निरोध तो पहले ही हो चुका था । अब शारीरिक सुख और दुःख की संज्ञा का भी अंत हो जाता है । तब सुख-दुःख रहित, विशुद्ध उपेक्षा और सजगता की अवस्था प्राप्त होती है । साधक इस संज्ञा के साथ चतुर्थ ध्यान में समाधिस्थ होता है ।  

५. पांचवां ध्यान – 
अनंत आकाश का ध्यान - चौथे ध्यान में शरीर की ही नहीं बल्कि सभी भौतिक पदार्थों की संज्ञा पूर्णतया निरुद्ध हो जाती है । अब साधक आकाश की अनंत स्थिति का ध्यान करता है । इसके फैलाव में कहीं कोई रुकावट नहीं । कोई भौतिक पदार्थ की टकराहट नहीं । साधक इस अनंत आकाश की संज्ञा में, यानी पांचवें ध्यान में, समाहित हो जाता है ।

६. छटा ध्यान – 
अनंत विज्ञान का ध्यान - साधक अनंत आकाश के आलंबन के आगे बढ़ कर देखता है कि यह विज्ञान, यानी चित्त, भी अनंत है । जितना चाहे उतना फैलाये। इसके विस्तार में भी कहीं कोई रुकावट नहीं है । अतः वह अनंत विज्ञान की संज्ञा में, यानी छठे ध्यान में, समाहित हो जाता है ।

७. सातवां ध्यान – 
अकिंचन का ध्यान -साधक अनंत विज्ञान के आलंबन का भी अतिक्रमण करके आगे बढ़ता है तो देखता है । कि कोई आलंबन ही नहीं रह गया । अकिंचन-ही-अकिंचन है । शून्य-ही-शून्य है । तब वह अनंत अकिंचन की संज्ञा में यानी सातवें ध्यान में समाहित हो जाता है ।

८. आठवां ध्यान-  
नेवसंञ्ञानासञ्ञायतन का ध्यान है । सातवें अकिंचन ध्यान के आगे ध्यान की ऐसी अवस्था आती है जहां संज्ञा इतनी धुंधली हो जाती है कि उसके अस्तित्व और अनस्तित्व में कोई भेद नहीं किया जा सकता । संज्ञा नामकरण का काम करती है । इस अवस्था में किस का नामकरण करे? किसे किस नाम से संबोधित करे? किसे आकाश कहे या अनंत विज्ञान कहे या अकिंचन, यानी शून्य कहे? यह अवस्था इन सबसे परे है जिसका कोई नामकरण नहीं किया जा सकता । साधक की संज्ञा किसी आलंबन को पहचानने में असमर्थ हो जाती है । परंतु साधक सर्वथा संज्ञाशून्य भी नहीं हो जाता । इस अस्पष्ट अवस्था में यह भी नहीं कहा जा सकता कि संज्ञा है और यह भी नहीं कहा जा सकता कि संज्ञा नहीं है ।
यह आठवां ध्यान सर्वोच्च अरूप ब्रह्मलोक की अवस्था है । समस्त संसरण-क्षेत्र का यह शीर्षस्थ लोक है । यहां जन्म लेकर कोई सत्त्व हजारों महाकल्पों का दीर्घ जीवन जीता है । परंतु अंततः मृत्यु को प्राप्त होता ही है । वह अमर नहीं हो जाता । सर्वोच्च होते हुए भी यह अरूप ब्रह्मलोक मृत्युलोक ही है । अनित्य ही है । यह मार का क्षेत्र ही है । मार के बंधन से मुक्त नहीं है । यहां पहुँच कर भी जन्म-मरण का भव  संसरण चलायमान रहता है । यह दु:खनिरोध अवस्था प्रदान नहीं कर सकता ।

धम्म स्कंध का दुसरा स्कंध समाधि को भावित किए बिना आगे प्रज्ञा स्कंध भावित होना असम्भव है।

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