प्रज्ञा क्या है?

🌿प्रज्ञा" धम्म स्कंध का तीसरा चरण ।🌿

प्रज्ञा क्या है?
 
भली प्रकार जानने का नाम ही प्रज्ञा है।  ऊपरी-ऊपरी दिखाऊ स्तर की सच्चाई को ही जान लेना प्रज्ञा नहीं है, प्रत्युत उस ऊपरी सत्य की गहराइयों में पैठ कर, भीतरी अंतिम सत्य जान लेना प्रज्ञा है।
जैसे कोई अबोध बालक जवाहरातों को रंग-बिरंगे आकर्षक पत्थरों के टुकड़ों के रूप में देखता है, परंतु एक अनुभवी जौहरी अपनी पैनी दृष्टि द्वारा एक-एक रत्न के भीतर सदोषता-निर्दोषता को देखते हुए उसकी उचित परख करता है, वैसे ही प्रज्ञावान व्यक्ति, जो स्थिति सामने आती है, उसका केवल ऊपरी-ऊपरी अवलोकन ही नहीं करता, बल्कि अपनी बींधती हुई प्रज्ञा-दृष्टि द्वारा गहराइयों में उतर कर परमार्थ सत्य का साक्षात्कार करता है। यों हर स्थिति को भली प्रकार से समग्र रूप में जान लेना ही प्रज्ञा है।यह जानना भी तीन प्रकार का होता है।
अतः प्रज्ञा भी तीन प्रकार की होती है; -

१. श्रुतमयी प्रज्ञा: 
 वह प्रज्ञा जो सुन कर या पढ़ कर प्राप्त हुई हो।

२. चिंतनमयी प्रज्ञा: 
 सुन-पढ़ कर जो प्रज्ञा प्राप्त हुई, उसे विचार-विनिमय द्वारा, चिंतन-मनन द्वारा, तर्क-वितर्क द्वारा अपनी बुद्धि-तुला पर तौल कर न्यायसंगत और युक्ति-संगत समझते हुए पुष्ट कर लेना ही चिंतनमयी प्रज्ञा है।

उपरोक्त दोनों प्रकार की प्रज्ञाएं सर्वथा निरर्थक हैं, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, परंतु यह सब पराया ज्ञान होने के कारण बहुधा बुद्धि-विलास बन कर ही रह जाता है, इसके द्वारा हमें जीवन में वास्तविक लाभ नहीं मिलता। वास्तविक लाभ मिलता है इस तीसरीः -
३. भावनामयी प्रज्ञा :
 याने वह प्रज्ञा जो हमारी अनुभूतियों के बल पर हमारे भीतर ही प्रकटित और प्रस्फुटित हुई हो। यह हमारा अपना साक्षात्कार है और इसलिए सही माने में कल्याणकारी है।
भावनामयी प्रज्ञा के लिए आवश्यक है कि शील धारण कर सम्यक समाधि उपलब्ध कर लें। सम्यक समाधि में समाहित हुआ चित्त ही यथाभूत सत्य को जान सकता है, उसके दर्शन कर सकता है।

“समाहितो यथाभूतं पजानाति पस्सति!”
इस यथाभूत देखने को ही विपश्यना याने विशेषरूप से देखना कहते हैं। सामान्यता हम केवल ऊपरी-ऊपरी दिखाऊ सत्य को ही देख कर रह जाते हैं, जैसे कि वह अबोध बालक रत्नों की ऊपरी रंगीनी और चमक-दमक को ही देखता है। जौहरी की बींधती हुई। पैनी दृष्टि की तरह भीतरी सच्चाई को देख सकना ही विशेष रूप से देखना है और यही विपश्यना है, यही भावनामयी प्रज्ञा है। यहां भावना का अर्थ भावुकता या भावावेश नहीं है। भावना का अर्थ है - बढ़ाना, फैलाना, विकसित करना, याने स्वयं अपने अनुभवों द्वारा प्राप्त हुई प्रज्ञा को विपश्यना के अभ्यास द्वारा बढ़ाते रहना।

ऊपरी-ऊपरी सत्य को जान लेना सरल है, परंतु भीतर सच्चाई का साक्षात्कार करने के लिए अंतर्मुखी होना आवश्यक है। अंतर्मुखी होकर हम अपनी जानकारी प्राप्त करें, आत्म-निरीक्षण करें, आत्म-दर्शन करें, आत्म-साक्षात्कार करें, अपने आप को देखें, जानें, समझे ।

काया की गति-विधि पर पूरा ध्यान रखते हुए कायानुपश्यना की जाती है। सांस के आवागमन का निरीक्षण भी कायानुपश्यना ही है। सांस का निरीक्षण करते-करते शरीर के अंग-प्रत्यंग का निरीक्षण करना आरंभ किया जाता है और धीरे-धीरे अभ्यास द्वारा शरीर के अंग-अंग में स्थूल व सूक्ष्म संवेदनाओं की अनुभूतियां होने लगती हैं, जो कि कभी सुखद, कभी दुखद, कभी न सुखद न दुखद होती ही रहती हैं। द्रष्टाभाव से इन वेदनाओं को निरखते रह कर वेदनानुपश्यना की जाती है। समय-समय पर उत्पन्न होने वाली विभिन्न प्रकार के चित्तों का निरीक्षण करते हुए चित्तानुपश्यना की जाती है। भिन्न-भिन्न प्रकार की चित्तवृत्तियों याने चित्त में उत्पन्न होने वाले विकारों का निरीक्षण करते हुए धम्मानुपश्यना की जाती है।

इन चारों विपश्यनाओं में हम वेदनानुपश्यना को अधिक महत्व देते हैं, क्योंकि इसका संबंध थोड़ा बहुत अन्य तीनों से भी रहता ही है। ‘वेदना' काया के आधार पर ही अनुभूत की जाती है। वह चित्त द्वारा ही अनुभूत की जाती है। प्रत्येक चित्त-विकार एक सूक्ष्म संवेदना से संबंधित होता है। इस कारण वेदनानुपश्यना का अपना विशिष्ट महत्व है। इस एक की पुष्टि में चारों की पुष्टि होती चली जाती है।

इस प्रकार विपश्यनाओं द्वारा स्वयं अपनी अनुभूतियों से इस सत्य का साक्षात्कार किया जाता है कि यह शरीर अष्टकलापों का, सूक्ष्म परमाणुकणों का पुंज मात्र है और अनित्यता, परिवर्तनशीलता उसका स्वभाव है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु; इन चारों महाभूतों से बने ये परमाणुकण शरीर के भीतर अपने गुण, धर्म, स्वभाव का प्रतिक्षण प्रदर्शन करते ही रहते हैं। बींधती हुई तीव्र समाधि के बल पर ही इस परिवर्तनशील शरीर-धारा के प्रवाह का निरीक्षण किया जाता है और इसी प्रकार सतत परिवर्तनशील चित्तधारा का भी। दोनों का अनित्य स्वभाव और दोनों का दुख-स्वभाव स्वयं अनुभूत होता है और तब उनका अनात्म स्वभाव भी स्वयं स्पष्ट होने लगता है। दोनों की निस्सारता स्पष्ट महसूस होती है। तन और मन की इस मिली-जुली प्रवाहमान धारा में स्थायी, स्थिर, शाश्वत, ध्रुव ऐसा कुछ भी तो नही है, जिसे “मैं " कह सके, जिसे “मेरा " कह सके , जिस पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सके, जिससे अपना तादात्म्य स्थापित कर सके । इस प्रकार नाम और रूप की जीवनधारा को निरासक्त हो कर, निर्लिप्त हो कर, नि:संग हो कर देख सकने का अभ्यास आरंभ होता है। जैसे-जैसे सूक्ष्म अनुभूतियों की गहराइयों में उतरते जाते हैं, वैसे-वैसे यह निर्लिप्तता भी पुष्ट होती जाती है। जब तक आसक्ति है, तब तक आलंबन का यथाभूत दर्शन नहीं कर सकते । विपश्यना प्रज्ञा द्वारा जैसे-जैसे आसक्ति टूटती है, वैसे-वैसे हम सभी आभ्यांतरिक आलंबनों का यथाभूत, यथातथ्य, यथास्वभाव, यथालक्षण दर्शन करने लगते हैं जैसे कोई अँधेरे घर में दीपक ले कर प्रवेश करे तो वहां का अंधकार दूर होता है। प्रकाश उत्पन्न होता है। और उस प्रकाश में वहां की सब वस्तुएं साफ-साफ दीखने लगती हैं। इसी प्रकार प्रज्ञा के उत्पन्न होने से अविद्या का अंधकार दूर होता है; विद्या का उजाला जाग उठता है और उस ज्ञानालोक में आर्यसत्यों का प्रकटीकरण होता है, परमार्थ सत्यों का साक्षात्कार होता है।

हम अपने अध्यात्म की गहराइयों में उतर कर दुख सत्य का साक्षात्कार करते हैं। सदा अतृप्त और असंतुष्ट रहने वाला यह मन किस प्रकार तृष्णा की प्यास से निरंतर व्याकुल ही रहता है। यह प्यास भी कैसी न बुझने वाली प्यास है! ऐसा बिना पेंदे का गहरा कुआं, जिसे भरने के सारे प्रयास निष्फल होते रहते हैं। अपनी तृष्णाओं अहम्मन्यताओं और दृष्टियों के प्रति बढ़ा हुआ उपादान, चिपकाव, आसक्त-भाव हमें किस प्रकार निरंतर व्यथित, व्याकुल और व्यग्र बनाता ही रहता है। हमारे दुखों और उन सभी दुखों के मूलभूत कारण का साक्षात्कार होने पर, उसके निवारण का यह पावन मार्ग किस प्रकार दुख उत्पन्न करने वाली इन आसक्तियों को नष्ट कर हमें दुख-विमुक्त बनाता है। इसी मार्ग का अभ्यास करते-करते नितांत दुख-विमुक्ति-स्वरूप निर्वाण का भी साक्षात्कार हो जाता है।

इस प्रकार जैसे-जैसे विपश्यना के अभ्यास द्वारा प्रज्ञा पुष्ट होती जाती है, वैसे-वैसे मोह, मूढ़ता, माया, मरीचिका, भ्रम, भ्रांति, धोखा, विपर्यास सभी दूर हटते जाते हैं। सारी स्थिति अपने आप स्पष्ट होती जाती है। मन में किसी प्रकार की शंकाएं, कुशंकाएं नहीं रहने पातीं। प्रज्ञा पुष्ट होती है, तो शील-सदाचार शुद्ध होता है, विकारों से विहीन हो कर चित्त विशुद्ध होता है, दृष्टि विशुद्ध होती है और इस कल्याणकारी विशुद्धि मार्ग पर आगे बढ़ते हुए हम शुद्ध आर्यत्व प्राप्त करते हैं। मुक्ति-सुख का आस्वादन करते हैं।

विपश्यना प्रज्ञा का अपना एक सुख है, जो अन्य सभी सुखों से उन्नत है। चाहे हम स्थूल ऐन्द्रिय सुखों में लिप्त हों अथवा अतीन्द्रिय रूप, शब्द आदि के आलंबनों द्वारा आत्म-सम्मोहनजन्य किसी प्रकार की आनंदानुभूति में लिप्त हों, दोनों ही अवस्था सच्चे सुख की अवस्था नहीं है। क्योंकि जब ये सुख समाप्त होते हैं, तो गहरा दुख साथ लाते हैं। और चूंकि दोनों ही अनित्य हैं, इसलिए परिवर्तनशील हैं, इसलिए समाप्त होते हैं। समाप्त होते ही मन फिर उन्हें पाने के लिए छटपटाने लगता है, तृष्णा से व्याकुल होने लगता है। वास्तविक सुख तो वह है जो सदा एक रस बना रह सके। वह सुख निर्लिप्ति का ही सुख है। जब हम निर्लिप्त हो कर देखने के अभ्यासी हो जाते हैं, तो हमारा आलंबन भले बदलता रहे, हमारे देखने में कोई अंतर नहीं पड़ता। न तो हम ऐन्द्रिय अथवा अतीन्द्रिय सुखों के आगमन पर नाचने लगते हैं और न ही उनके निगमन पर रोने लगते हैं। दोनों ही स्थितियों का एक तमाशबीन की तरह तमाशा देखते हैं। अपने अंतर्मन की गहराइयों में उतर कर सूक्ष्म से सूक्ष्म स्थिति की भी परिवर्तनशीलता का निरीक्षण करते-करते इस अनित्यतता की गहन सच्चाई के प्रति सम्यक दृष्टि जागती है, जो कि हमें इस परिवर्तनता से प्रभावित होने से बचाती है। हम एक जैसी निर्लिप्त और निस्पृह दृष्टि से प्रत्येक बदलती हुई स्थिति को देखते हैं और उसका सुख लेते हैं। जो कुछ सांदृष्टिक है, आंखों के सामने है, उसे निर्विकार भाव से देखते रहने का सुख निराला है, अनोखा है, अतुलनीय है। यही सच्चा सुख-विहार है। इसे ही ‘दिट्ट धम्म सुख विहार' कहा गया है।

निरंतर अतृप्ति और असंतुष्टि-जन्य तृष्णाओं में झुलसते रहने के बजाय आओ, हम विपश्यना के अभ्यास द्वारा अपनी भावनामयी प्रज्ञा विकसित करें और तृष्णा की गहन आसक्तियों से विमुक्त हो कर स्थितप्रज्ञ व अनासक्त बनें, जीवनमुक्त बनें ।
     -कल्याणमित्र गुरु गोयनका

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