जाति असल मे नस्ल से भी ज्यादा भयानक है


 हजारों साल तक चल सकने वाली किसी भी नफरत को अगर आप समझना चाहते हैं तो आपको पहले भारत के समाज और धर्म को समझना पड़ेगा। पुलिट्ज़र पुरस्कार विजेता इसाबेल विलकिनसन इस सूत्र को गहराई से जान और समझ गई हैं, उन्हे भारत के समाज और भारतीय धार्मिक परंपरा का अनुग्रहित होना चाहिए, और वास्तव मे वे इसी अर्थ मे भारत को धन्यवाद देती भी हैं। 

अपने जन्म से लेकर अब तक के जीवन मे उन्होंने अमेरिका और यूरोप मे फैली नस्लवादी हिंसा और घृणा को समझने की कोशिश की है, लेकिन रेस/नस्ल की थ्योरी के आधार पर इस घृणा और हिंसा को इस गहराई से ‘संस्थागत’ स्वरूप मिलने की व्याख्या नहीं की जा सकती। इसीलिए वे भारत की महानतम खोज – 'वर्ण और जाति व्यवस्था' की तरफ मुड़ती हैं और काले समुदायों के प्रति अमेरिकी या युरोपियन गोरों के मन मे भारी हुई घृणा को समझने की कोशिश करती हैं।

यहाँ मजे की बात देखिए वे कि भारत की इस महान खोज के आधार पर इसाबेल नफरत की इस गुत्थी को सुलझा लेती हैं, वे अमेरिकी समाज की समस्या को भारत से आने वाले ज्ञान के आधार पर आसानी से समझ लेती हैं। 

इसाबेल अपनी किताब और विश्लेषण को खत्म करते हुए इस किताब का नाम रखती हैं: Caste : the origins of our discontents इस पूरी किताब को ध्यान से पढ़ा जाए तो इसाबेल असल मे डॉ अंबेडकर के एक महत्वपूर्ण वक्तव्य को अपनी समझ से बार बार दोहरा रही हैं। लगभग सौ साल पहले डॉ अंबेडकर ने शिकागो मे अपने एक मित्र से कहा था कि "जाति असल मे नस्ल से भी ज्यादा भयानक चीज है यह नस्ल की तुलना मे कहीं गहराई से और कहीं अधिक संगठित ढंग से काम करती है। न केवल शोषक बल्कि शोषित भी इसमे दूसरों के शोषण का आनंद लेता रहता है। इसीलिए इसका नाश करना इतना कठिन है" 

इसाबेल अश्वेत समुदाय से आती हैं और वे देखती हैं कि अमेरिकन अश्वेत समुदाय भी अपने खुद के गरीब लोगों से ठीक उसी तरह नफरत करता है जिस तरह भारत की सभी अगडी और पिछड़ी जातियाँ एकदूसरे से नफरत करती हैं। एक श्वेत व्यक्ति द्वारा अश्वेत से नफरत समझ मे आती है लेकिन एक अश्वेत भी दूसरे अश्वेत से ठीक एक श्वेत व्यक्ति की तरह नफरत करे तो यह बात सामान्य समझ के बाहर हो जाती है। 

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए इसाबेल भारत आती हैं, वे भारत की जाति व्यवस्था का अध्ययन करती हैं और जो बात उन्हे दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र मे समझ मे नहीं आई वह उन्हे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने आसानी से समझा दी। इसाबेला अपनी किताब मे बहुत सारे उदाहरणों और घटनाओं का जीवंत चित्रण करती हैं, इन घटनाओं से गुजरते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अश्वेत पुरुषों और स्त्रीयो का जो अमानवीय दमन बीती तीन शताब्दियों मे हुआ है उसकी दास्तान सुनकर भारत के बीते दो हजार साल का अनार्यों या भारत के बहुजनों के दमन का इतिहास जिंदा हो जाता है। 

इसाबेला बहुत बारीकी और विस्तार से बताती हैं कि किस तरह काले गुलामों का व्यापार करने वाले गोरे व्यापारी उन गुलामों को वैसे तो छूने और साथ बैठाने तक से नफरत करते थे लेकिन उनकी स्त्रीयो का सामूहिक बलात्कार करते थे और उनसे जन्मी अपनी ही संतानो को अमेरिकी या युरोपियन कानून के अनुसार अपनी वल्दियत नहीं देते थे, ये बच्चे अपनी माँ के नाम से जाने जाते थे और अपनी माँ की तरह ही अपमानित और शोषित होते रहते थे। 


इस तरह के वर्णन आपको भारत के धर्मग्रंथों मे मिल जाएंगे। आर्य-अनार्य संघर्ष के दौरान लिखे गए सभी धर्मग्रंथ भयानक हिंसा और स्त्रियों के अपमान से भरे हुए हैं। इसाबेला की किताब से गुजरते हुए भारत के अनार्यों के दमन की दास्तान फिर से मुखर हो जाती है। 

यह किताब विस्तार से बताई है कि मजदूरी करते हुए थक कर गिर जाने वाले अश्वत मजदूरों को न तो भोजन मिलता था न इलाज। उनके बारे मे अफवाहें फैलाईं जाती थी कि ये अश्वेत प्राकृतिक रूप से भयानक दर्द और तनाव झेलने के आदि होते हैं। भारत के धर्मग्रंथों मे भी यही अफवाहें फैलाई गई हैं, भारत के महाकाव्यों मे युद्ध के वर्णनों मे कहा गया है कि अनार्य असुर या राक्षस लोग जन्म से ही मायावी और कठोर होते हैं इन्हे भी या दर्द नहीं होता इत्यादि इत्यादि। इस बात को समझिए, एसी अफवाह फैलाकर अमेरिकी गोरे और भारतीय सवर्ण द्विज (आर्य) असल मे अनार्यों या शूद्रों, अनुसूचित जाति और जनजाति के प्रति एक सामाजिक घृणा पैदा करते आए हैं।

यह घृणा फैल जाने के बाद समाज मे न तो किसी को इनके सुख दुख कई चिंता होती है न शारीरिक चोट या दर्द की कोई चिंता होती है। इसाबेल आगे बताती हैं कि एक बार समाज मे एसी मान्यता बन जाने के बाद अश्वेत स्त्रियों और पुरुषों को बिना बेहोश किए ही उनके अंगों को काट पीटकर या करंट लगाकर कई सारे वैज्ञानिक और चिकित्सकीय अध्ययन किये जाते थे। 

अमेरिकी गोरों की इस भयानक बर्बरता की तुलना हिटलर के नाजी जर्मनी से की जा सकती है। हिटलर ने भी अपने यातना शिविरों मे यहूदी लोगों को जिंदा जलाया, काटा और उनके जिंदा शरीरों पर जमाने भर के प्रयोग किए थे। गुलामों के व्यापार से शुरू होकर द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक मानव शरीर विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान की कौनसी खोज किस तरह हुई है यह कहना बड़ा कठिन है। हिटलर ने जो कुछ किया उसके बारे मे शेल्डन पोलक का अध्ययन बहुत कुछ बताता है। मेक्स मूलर ने जब संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन किया था तब आर्यों की श्रेष्ठता का सिद्धांत यूरोप मे संस्कृत शास्त्रों के जरिए पहुंचा। 

इस सिद्धांत ने न केवल जर्मन तानाशाह को एक नई उम्मीद की किरण दिखाई बल्कि उसे अमानवीय ढंग से अत्याचार करने का दुस्साहस भी दिया। संस्कृत भाषा का यूरोपीय नाजीवाद से क्या संबंध है इस विषय मे पद्मश्री शेल्डन पोलक ने विस्तार से लिखा है। उसे सभी बहुजनों को ठीक से पढ़ना समझना चाहिए। पोलक के बाद अब इसाबेला को भी भारत के बहुजनों को ठीक से पढ़ना चाहिए।     

इसाबेला इस किताब मे दावा करती हैं कि अमेरिकी समाज की नस्लवादी हिंसा और घृणा को नस्ल के आधार पर नहीं बल्कि ‘जाति’ के आधार पर समझना चाहिए। यह नस्ल और जाति के विमर्श मे एक एकदम क्रांतिकारी नजरिया है, हालांकि उन्नीसवीं सदी मे कई ब्रिटिश और अमेरिकन मानवशास्त्रियों ने भारत की जाति व्यवस्था और अमेरिका की नस्ल की तुलना की है लेकिन इसाबेला इसे जिस विस्तार मे ले जा रही हैं वह पहली बार हुआ है। 

हाल ही मे एक अश्वेत अमेरिकी ‘जॉर्ज फ्लॉय्ड’ को तरह श्वेत अमेरिकी पुलिस ने घुटनों के नीचे दबाकर मार दिया है। इस घटना ने नस्लवादी हिंसा को समझने की एक नई बहस छेड़ दी है। उस घटना से जन्मे एक बड़े आंदोलन के बीच इसी साल प्रकाशित हुई यह किताब रातोंरात एक बेस्ट सेलर बन चुकी है।  

यह किताब अमेरिका और भारत दोनों को समझने के लिए एक मील का पत्थर साबित होती है। विशेष रूप से उन अमेरिकन या यूरोपीय लोगों के लिए जो जाति को नहीं जानते, वे इस किताब को पढ़कर भारत की वास्तविकता को आसानी से समझ सकेंगे। लाखों अमेरिका और युरोपियन इस किताब के माध्यम से भारत की वर्तमान राजनीति और समाज को समझने की कोशिश कर रहे हैं। 

यह एक महत्वपूर्ण किताब है और एकदम सही समय पर आई है। 

- संजय श्रमण

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