बुद्ध का भिक्खा - पात्र

 बुद्ध का भिक्खा - पात्र

चित्र एक में बुद्ध का भिक्खा - पात्र है। फिलहाल यह नेशनल म्यूजियम काबुल में है।

इसके पहले यह भिक्खा - पात्र कंधार में था। डाॅ. बेले ने 19 वीं सदी में इसे कंधार में देखा था।

कंधार से पहले यह भिक्खा - पात्र पुरुषपुर में था। 5 वीं सदी में फाहियान ने इसे पुरुषपुर में देखा था।

पुरुषपुर बौद्ध राजा कनिष्क की राजधानी थी। श्रीधर्मपिटकनिदान के चीनी अनुवाद से पता चलता है कि कनिष्क इसे पाटलिपुत्र से पुरुषपुर ले गए थे।

पुरुषपुर से पहले यह भिक्खा - पात्र वैशाली में था, जहाँ इतने बड़े भिक्खा - पात्र को वहाँ बुद्ध को समर्पित किया गया था।

भिक्खा - पात्र हरे - भूरे ग्रेनाइट पत्थर का है, जिसका व्यास 1.75 मीटर है। यह लगभग 4 मीटर ऊँचा और लगभग 400 किलो भारी है।

आप सोच रहे होंगे कि इतना विशाल भिक्खा - पात्र भला बुद्ध कैसे उठाते होंगे। दरअसल यह उन्हें सम्मान में दिया गया था, जैसे आज के नेताओं को टनों भारी माला समर्पित किया जाता है।

इतिहासकार पर्शियन में इस पर लिखा देख इसकी प्रामाणिकता को नकारते हैं। फिर मुगलकालीन लिखावट देखकर प्रयाग किले के अशोक स्तंभ को क्यों नहीं नकारते कि यह मुगल काल का है।

दरअसल यह भिक्खा - पात्र बुद्धकालीन है। बाद में इस पर पर्शियन अभिलेख लिखा गया है।

आप देख सकते हैं कि भिक्खा - पात्र के तल - भाग में बौद्ध कमल बना हुआ है, जिसमें 24 दल हैं, स्वस्तिक के निशान भी है।

फाहियान ने जो इसके बारे में विवरण दिए हैं, लगभग सभी अनुवादकों ने स्वीकार किया है कि भिक्खा - पात्र 8 - 9 लीटर क्षमता वाला था और काबुल म्यूजियम के भिक्खा - पात्र की क्षमता भी 8 -9 लीटर की है।

भिक्खा - पात्र काल्पनिक नहीं है। 2 री सदी के एक दृश्यांकन में दो कुषण सैनिक इसे उठाकर पुरुषपुर ले जा रहे हैं। इससे इसके वजन का पता चलता है। ( चित्र 2 )

चित्र 2 का जो दृश्यांकन है, वह 2 री सदी का है। फिलहाल यह चित्र - फलक नेशनल म्यूजियम टोक्यो में सुरक्षित है।

एलेक्जेंडर कनिंघम ने अपनी पुस्तक " रिपोर्ट आॅफ टूर्स इन नार्थ एंड साउथ बिहार इन 1880 - 81" के खंड 16 में भिक्खा - पात्र का चित्र देते हुए बताया है कि बुद्ध का यह भिक्खा - पात्र पुराने कंधार में है।

कनिंघम के जमाने में यह भिक्खा - पात्र पुराने कंधार में ही था। 20 वीं सदी के आखिर में राष्ट्रपति मो. नजीबुल्लाह ने इसे नेशनल म्यूजियम काबुल में संरक्षित करा दिए। तब से यह काबुल में है।

भारत के पार्लियामेंट में इसे काबुल से वैशाली लाए जाने की माँग माननीय रघुवंश प्रसाद सिंह ने की थी। मगर इतिहासकारों के भ्रम के कारण मामला वहीं लटक गया। राजेन्द्र प्रसाद सिंह



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