मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक पुरातात्विक स्थल सारू-मारू
ऐतिहासिक पुरातात्विक स्थल सारू-मारू
सारू-मारू एक ऐतिहासिक पुरातात्विक महत्व के साथ बुद्धकालीन अवशेषों का एक पिटारा हैं । यहां प्रत्येक वर्ष दिसंबर माह के अंतिम रविवार को बौद्ध महोत्सव का आयोजन किया जाता हैं। सीहोर जिले में बुधनी तहसील के ग्राम - पान गुराड़िया ( पबात पर्वत) के पास स्थित सारु मारू मेला अपने भव्यता को लेकर जाना जाता हैं। यह गुफाएं करीब 50 एकड़ क्षेत्र की पहाड़ियों में फैली हैं। इस पहाड़ी पर करीब 25 से अधिक प्राचीनकालीन स्तूप बने हुए हैं। यह एक शांत ज्वालामुखी के ऊपर बसा हुआ है। आज से करीब 50 हजार साल पहले ज्वालामुखी के फूटने से उसके लावे से इसका निर्माण हुआ है। ज्ञात हो कि शांत ज्वालामुखी करीब 1 लाख साल के अंतराल में फूटते हैं। इसका अर्थ यह है कि अभी इसको फूटने में लगभग 50 हजार साल और बाकी है। मलवा उपजाऊ होने से धीरे-धीरे यह क्षेत्र हरा-भरा होता गया और बस्तियां बसने लगी। इनमें मुख्य रूप से होशंगाबाद, रेहटी, देलाबाड़ी, आंवलीघाट, नसरूल्लागंज आदि आसपास के क्षेत्र आते हैं। यहां ई. पू. छठीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर चंद्रप्रद्योत का साम्राज्य था। जिनके नाम पर इतिहास का काल प्रद्योतवंश के नाम से जाना जाता हैं। यहां सम्राट अशोक के सारू-मारू की गुफा, सम्राट अशोक के अपने राज्यकाल में आकर रुकने के और अपना आदेश उत्कीर्ण करवाने के प्रमाण मिलते हैं। यहां शैल चित्र गुहाविहार सारिपुत्र- महामौद्गल्यायन के नाम से जाना गया कालांतर में यह परंपरा चलती रही । निरंतर यहां बौद्ध भिक्षु निवास कर धम्म का प्रचार- प्रसार करते रहे। वर्तमान में यह स्थान उन्हीं आचार्यों के सारू-मारू नाम से जाना जाता है। इस ऐतिहासिक धरोहर में कई स्तूपों के साथ-साथ भिक्षुओं के लिए प्राकृतिक गुफाएं भी हैं। मुख्य गुफा में अशोक के 2 शिलालेख पाए गए हैं। किन्तु सम्राट अशोक के पांचवे शिलालेख की पुष्टि हो चुकी है। इस स्थान पर दो स्तूप हैं जिन्हें सारु और मारु कहा जाता है। मान्यता यह है कि यह तथागत बुद्ध के प्रिय शिष्य सारिपुत्र और मौद्गल्यायन के अस्थि अवशेषों पर निर्मित किए गए हैं। सम्राट अशोक के द्वारा उनकी अस्थियों का स्थानांतरण किया गया था और सन् 1976 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के द्वारा इसकी खोज की गई है।
लेकिन जाने के रास्ते का निर्माण नही हो सका है। इस गांव के जंगल में कुछ आदिवासी झोपड़ियां भी हैं। यहीं नही यहां कई औषधीय वृक्षों की भी प्रजातियां हैं इनमें से कई विलुप्त हो चुकी हैं। जिनसे आदिमानव अपने गहरे घावों का उपचार किया करते थे। यहां सौन्दर्य से परिपूर्ण कई जल प्रपात हैं। गुफाओं में कई बौद्ध भित्तिचित्र (स्वस्तिक, त्रिरत्न, कलसा…) पाए गए हैं। मुख्य गुफा में अशोक के दो शिलालेख पाए गए थे: माइनर रॉक एडिक्ट n°1 का एक संस्करण, अशोका के एडिट्स में से एक और एक अन्य शिलालेख में पीरदासी (उनके शिलालेखों में अशोक का इस्तेमाल किया गया सम्मानजनक नाम) की यात्रा का उल्लेख है।
स्मारक शिलालेख में ब्रम्ही लिपि में 𑀧𑀺𑀬𑀤𑀲𑀺 𑀦𑀸𑀫, 𑀭𑀸𑀚𑀓𑀼𑀫𑀮 𑀯, 𑀲𑀁𑀯𑀲𑀫𑀦𑁂, 𑀇𑀫𑀁 𑀤𑁂𑀲𑀁 , 𑀧𑀼𑀦𑀺𑀣, 𑀯𑀺𑀳𑀭𑀬𑀢𑀬𑁂 इंग्लिश में Piyadasi nāma, rajakumala va, samvasamane, imam desam papunitha,
vihara(ya)tay(e) इसका अर्थ है - "राजा, जो (अब अभिषेक के बाद) को" पियादासी "कहा जाता है, (एक बार) एक खुशी के दौरे के लिए इस स्थान पर आया था, जबकि अभी भी एक (सत्तारूढ़) राजकुमार, अपने अनकहे संघ के साथ रह रहा है।"
एक और और शिलालेख के अनुसार, ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक ने इस बौद्ध मठ परिसर का दौरा किया जब वह अपनी पत्नी रानी विदिशा के साथ गए थे और और साथ में महेंद्र भी थे। अशोक कालीन लघु शिलालेख में भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राम्ही है।शुंग कालीन यष्टि लेख में कोरम्मक विहार की भिक्षुणी संघमित्रा के दान का उल्लेख है।भिक्षुणी संघमित्रा सम्राट अशोक की पुत्री थी तथा कोरम्मक विहार सिरीलंका में स्थित था। महास्तूप एवं अन्य लघु स्तूपों के भग्नावशेष यहां पर मौजूद हैं।सादे पत्थर पर बने हुए इन स्तूपों में बौद्ध भिक्षुओं के अस्थि अवशेष सुरक्षित हैं।
सारु-मारु गुफाओं के प्रवेश द्वार पर स्थित प्रमुख स्तूप की गोलाई 30 फ़ीट है। स्तूप तक पहुंचने के लिए दोनों तरफ पत्थरों से निर्मित सीढियां बनाई गई हैं। यह स्तूप को दिए गए सम्मान का प्रतीक होता था। स्तूप के चारों तरफ प्रदक्षिणा पथ है जिस पर चलकर पवित्र स्तूप की परिक्रमा की जाती है।उप निथु महाविहार और शैल चित्र मुख्य स्तूप के पास स्थित है। यहीं पर बौद्ध भिक्षुओं के रहने के लिए आवास और साधना स्थल थे। यह महाविहार विदिशा से दक्षिण की ओर जाने वाले व्यापार मार्ग पर स्थित था। यहां का यष्टि लेख सांची के पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित है। यहां का नजदीकी रेलवे स्टेशन बुदनी है जो भोपाल-इटारसी मार्ग पर स्थित है। गुफाओं से स्टेशन की दूरी 15 किलोमीटर है। राजा भोज एयरपोर्ट भोपाल से, भोपाल- होशंगाबाद मार्ग पर 75 किलोमीटर चलने पर यह गुफाएं मिलती हैं।
सीहोर जनपद पहले भोपाल इस्टेट का एक हिस्सा था। मध्य- प्रदेश राज्य निर्माण के बाद वर्ष 1972 में इसका विभाजन कर एक नया जिला भोपाल बनाया गया। सीहोर का पुराना नाम सिद्धपुर है। यह अवंती महाजनपद का अंग रहा है। मालवा क्षेत्र के मध्य में विंध्याचल श्रेणी की तलहटी में स्थित सीहोर जिले से इंदौर- भोपाल राजमार्ग गुजरता है।
इसी पहाड़ी में सैकड़ो की संख्या में पुरातत्व शैल चित्र हैं। जिनका रख-रखाव और संरक्षण का जिम्मा राष्ट्रिय पुरातत्व विभाग का है। लेकिन पुरातत्व विभाग ने राष्ट्रीय संपदा सम्राट अशोक के शिलालेख के चारो ओर सुरक्षा के इंतजाम नही किएं है इस कारण इस शिलालेख को देखने वाले और शरारती तत्व शिलालेख से छेड़ छाड़ करते हैं जिससे शिलालेख का हिस्सा टूट रहा है। अन्य कंधराओं में बने शिलालेख धूमिल होकर विलुप्त हो रहै हैं। इनके रखरखाव के लिए केंद्र और राज्य सरकार ने कोई प्रबंध नही किएं हैं। इसलिए पुरातत्व संपदा को नुकसान पहुंच रहा है। इस शिलालेख का छोटा हिस्सा पहले खिर गया है लेकिन अब यह टूटा हुआ हिस्सा और बड़ गया है। मध्यप्रदेश के सिहोर ज़िले में बुधनी काफी रोचक है क्योंकि इसका असल नाम बुद्ध नगरी था। यहां की पहाड़ियों में छिपे हैं प्राचीन बौद्ध अवशेष जो इतिहास के पन्नों पर चिंहित हैं, पर आज भी उनकी नज़र में उपेक्षित हैं। इस पहाड़ी क्षेत्र में कई स्तूप बिखरे पड़े हैं। यहां के शिलालेख और चित्रकारी इसकी प्राचीनता दर्शाते हैं।
*कैसे पहुंचे* -
सांची से लगभग 120 किमी दक्षिण में तथा भोपाल से 82 किमी नकटीतलाई पानगुराडिय़ा में, हबीबगंज बस स्टेंड से 70 किमी, होशंगाबाद रेलवे स्टेशन से 26 किमी और नसरूलगंज से 30 किमी है। (copy post)
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