भारतीय शरणार्थी

 गांवों से शहरों की ओर मजदूरों के पलायन के कारण और RSS की  कुटिल भूमिका।

         

         भारत में जाति के आधार पर किसी को कम आंकना अथवा बात-बात पर गाली गलौज करना आम बात होती है। यह बात आम तौर पर तब और आम हो जाती है। जब कोई व्यक्ति गरीब एवं मजदूर हो। इस हालात में ये लोग मान एवं सम्मान के लिए गांव के जमीनदारों की गुलामियों से मुक्त होने के लिए  बड़े पैमाने पर शहरों की तरफ पलायन किए हैं। क्योंकि बिना भेदभाव के गांवों की तुलना में शहरों में काफी अच्छी मजदूरी भी मिलती है। और बात-बात  पर इन्हें कोई जाति सूचक शब्दों से गाली गलौज भी नहीं करता है। यही इनके लिए बड़ी खुशी की बात होती है। इस तरह आजादी के 70-75 सालों में  लगभग 20-25 करोड़ लोगों ने गांव से शहरों की ओर पलायन किया है। शहरों में भी इनकी कोई अच्छी हालात नहीं होती है। इनके आसियाने ज्यादातर रोड अथवा गन्दे नालों के किनारे ही पाये जाते है। लेकिन फिर भी ये लोग गांवों की तुलना में काफी अच्छा महसूस करते हैं। 

          इन मजदूरों को भारतीय शरणार्थी भी कहा जा सकता है। लेकिन मनुवादी सरकारे इन्हें शरणार्थी नहीं मानती है। सरकार यदि इन्हें शरणार्थी मान लेगी तो फिर एक सवाल उठेगा। कि ये कौन लोग हैं? और कहां से आए हैं? और क्यों आए हैं। इनको किन लोगों ने सताया है? और क्यों सताया है? इन सारे सवालों के जवाब सरकार को देना पड़ेगा।  इस हालात में सरकार और सरकार के feudal लोग कटघरे में खड़े हो जाएंगे। इसलिए इन लोगों को मनुवादी सरकारे इन्हें शरणार्थी नहीं मानती है। यदि सरकार इन्हें शरणार्थी मान ले तो अन्य शरणार्थियों की तरह इन्हें भी इनके रहने एवं खानें की व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार को उठानी पड़ेगी। जैसे बहुत सारे पाकिस्तानी शरणार्थी भारत में आए और बड़े सम्मान के साथ रह रहे हैं।, इसी प्रकार बांग्लादेशी शरणार्थी, म्यानमार से आए हुए शरणार्थी इत्यादि। इन शरणार्थियों के बारे में सरकार काफी संवेदनशील है। लेकिन जमीनदारों के ज़ुल्म एवं अन्याय से भागे हुए लोग शहरों में आकर बस्ते हैं। तब मनुवादी व्यवस्था को मानने वाले लोगों को ये शरणार्थी नज़र नहीं आते हैं। इस दोगलापन को भी हमें समझना होगा।

       मजदूरों के इस पलायन ने गांव के जमींदारों को परेशानी में डाल दिया है। क्योंकि गांवों में आज कल जमीनदारों को सस्ते मजदूर नहीं मिल पा रहे हैं। और मजदूरों के अभाव में इनकी खेती चौपट हो रही है। मजदूरों के पलायन को रोकने के लिए मनमोहन सिंह की सरकार ने मनरेगा का जाल बिछाया था। और सोचा था। इस बहाने गांवों के मजदूर गांवों में ही बने रहेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि शहरों की तुलना में मनरेगा में भी मजदूरों की मजदूरी ठीक नहीं है। इसलिए शहरों की तरफ पलायन ज्यादा हो रहा था। और बहुत सारे मजदूर अपने परिवारों के साथ शहरों में ही बसने लगे थे। शहरों में बसने से इन्हें मजदूरी के अलावा इन्हें और बहुत सारे फायदे नज़र आ रहे थे। जैसे इनके बच्चों की शिक्षा इत्यादि।

         भाजपा सरकार (जो RSS के agenda के अनुसार काम करती है।) ने ऐसे तमाम शहरी मजदूरों को एक साज़िश के तहत उन्हें पुनः उनके गांवों की तरफ धकेलने का काम किया। जिसमें पहला खेल De monetization and GST के माध्यम से खेला गया। और इस माध्यम से शहरों के रोजगारों को ध्वस्त किया गया। दूसरा कोविड का सहारा लेकर पूरे देश को lockdown किया गया। और बचे-खुचे शहरी मजदूरों को फिर से गांव की ओर धकेला गया है। अब जो मजदूर शहर छोड़कर गांव में पुनः आकर बस गए। ऐसे मजदूर जिनके पास कोई दूसरा साधन नहीं है। ऐसे हालात में गांव के मजदूर जमीनदारों के खेतों में पुनः काम करने के लिए मजबूर होंगे अथवा मजबूर किए जाएंगे। 

         RSS की यह रिसर्च शायद कामयाब रिसर्च है। उनका मानना है। कि लोगों को दो तरीके से गुलाम बनाया जा सकता है। पहला धार्मिक गुलामी और दूसरी आर्थिक गुलामी। यदि लोग धार्मिक गुलामी से by mistake मुक्त भी हो जाएं। तो फिर ऐसे लोगों को आर्थिक गुलामी में जकड़ना बहुत जरूरी है। और तभी इनके वोटों को आसानी से लिया जा सकता है। और लगभग यही खेल खेला भी जा रहा है। और जिसे हम प्रजातंत्र समझ रहे हैं। वह धीरे-धीरे फिर से जमीनदारों का प्रजातंत्र  बनता चला जा रहा है। लगभग हर गांव का जमीनदार कुछ इसी तरीके से प्रजातंत्र को चला रहा है। यह एक बहुत बड़ी समस्या बनती जा रही है। प्रजातंत्र खतरे में नज़र आ रहा है। इसलिए इस विषय पर हम लोगों को सीघ्र अति सीघ्र गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है। 

जय भीम।

प्रो. जगजीवन राम

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